हरिवंशपुराण हिंदी रूपांतर | Harivansh Puran Hindi Rupantar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मस्तावना किया है । नारदमुक्ति तथा सम्यग्दुष्टि क़ृष्णके द्वारा मिथ्यामार्ग चलानेकी बातपर भो आपने मेरा ध्यान गाकृष्ट किया था । इस तरह इन बिद्वानोंका मैं आभार मानता हूँ। पं. दरबारीोलालजी सत्यभक्त-द्वारा सम्पादित और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईते प्रकाशित मूल हरिवंशपुराण तथा पं. दौलतरामजी और पं. गजाधरलालजी कृत हिन्दी टोकाएँ भी हमारे कायमें पर्याप्त सहायक सिद्ध हुई हैं इसलिए इनके प्रति मैं समादर श्रकट करता हूँ । प्रत्तावना लेखमें श्रीमान्‌ स्वर्गीय नाध्रामजी प्रेमीके जैन-साहित्यका इतिहास से यथेच्छ सहायता ली गयी है अत उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करता हूँ । महापुराणकी प्रस्तावना प्रमीजीने रुगण रहते ढुए भी स्वयं देखी थी । पदपुराणकी प्रस्तावनामें काफी विचार पत्रों द्वारा दिये थे पर हरिवंशपुराण की प्रस्तावनाके समय हमें उनका प्रत्यक्ष सहयोग न मिलकर मात्र उनके लेखका परोक्ष सहयोग मिल रहा है इसका हृदयमें दुःख है । किसी भी व्यक्तिको परखने और उसे ऊँचा उठानेकी उनकी उदात्त भावना सम्पर्क- में आनेवाले प्रत्येक व्यक्तिको अपनी ओर आऊृष्ट कर लेती थी । हरिवंदाके इस संस्करणकों पद्यानुक्रम णिका दाब्दकोष तथा सुक्तिरत्नाकर आदि स्तम्भोंसे अत्यन्त उपयोगी बनानेंका प्रयत्न किया गया हैं । तत्तत्प्रकरणों- में तुलनात्मक टिप्पणोंसे भी इसे उपयोगी बनाया गया है । इस कार्यके लिए श्री डॉ. हीरालालजी डॉ. ए. एन. उपाध्ये तथा बाबू लक्ष्मीचन्द्रजीने सुझाव और सत्प्रेरणा दी है जिसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हैं । इतना सुन्दर भौर्‌ सुब्यवस्थित प्रकाशन करनेके लिए भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक साहू चान्तिप्रसादजी तथा उसको अध्यक्षा रमारानीजी घन्यवादके पात्र हैं । महापुराण पद्मपुराण और हरिवंद्यपुराणको सुसम्पादित करनेकीो मेरी चिर-साघना साहजीकी उदारतासे हो पूर्ण हो सको है । इसलिए उनके प्रति अपनी श्रद्धा किन दाब्दों में प्रकट करूं ? यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि आजका वातावरण भाहंत दर्गनके प्रचारके लिए अत्यन्त उपयुक्त है । दंकराचार्यके समयसे लेकर अभी पिछले पचीस-पचास वर्ष पूर्व तकका समय इतना संघप पूर्ण समय था कि लोग एक-दूसरके दर्शन या घर्मकी बातकों सुनना ही पाप समझते थे पर सौभाग्यसे अब वह संघर्षमय वातावरण समासप्राय है और धोरे-घीरे बिलकुल ही समाप्त होनेके सम्मुख है । आजका मानव एक-दुसरे दर्शन या धर्मकी बातको सुनने और समझनेके लिए तैयार है । आज आहत दर्शनके होर-जवाहरात कुन्दकुन्द गौर समन्तभद्रके अनूठे-अनूठे ग्रन्थ विद्वके सामने रखे जावें तो विश्वके प्रत्येक मानवक्ा अन्त- रात्मा उनके अलौकिक प्रकाशसे जगमगा उठे । आवश्यकता है कि कुन्दकुन्द स्वामीकी अध्यात्मघारा विदवके रगमंचपर प्रवाहित की जाये जिससे आजका संताप--सन्त्रस्त मानव उसमें गवगाहन कर सच्ची द्यान्तिका अनुभव कर सके । भाजकी सरकार जिन पंचशीलोंकी स्थापना कर विद्वमें शान्ति स्थापित करना चाहती हैं उन पंचदीलोंके सिद्धान्त तथा समाजवाद गौर निःरतिवादके सिद्धान्त आहत दर्शनोंमें उनके पुराण काव्य और कथा-ग्रन्थोंमें कूट-कूट कर भरे हुए हैं । यदि आहत दर्शनका अनुयायी समाज अपने दर्दानके प्रकाशनार्थ पंचवर्षीय योजना बना ले और पूरी शक्तिके साथ जुट पड़े तो उसके इतिहासमें एक गणनीय कार्य हो जावेगा । जेनमन्दिरोंके अन्दर लाखों-करोड़ोंकी सम्पत्ति अनावश्यक पड़ी हुई है । यदि जिनेन्द्र देवकी वाणीके प्रचारमें उसीका उपयोग कर लिया जाये तो यह महान पृण्यका कार्य होगा । मन्दिरोंमें चाँदी-सोनेके बर्तनोंके संग्रह तथा संगममर रादि लगवानेकी अपेक्षा जिनवाणीके प्रचारमें जो द्रव्य खर्च होता हैं. वह लाखगना गच्छा हे--अहंत धमकी सच्ची प्रभावना करनेवाला है । अन्तमें ग्रन्थको अगाघता और अपनी अल्पज्ञता तथा व्यस्तताके कारण हुई त्रुटियोंके लिए क्षमा- याचना करता द्वभा प्रस्तावना लेख समाप्त करता हूँ । विनस्र पन्नालाल जैन




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