हिन्दीगीतविज्ञानभाष्यभूमिका भाग २ | Hindigeetavigyanbhashyabhumika (vol - Ii)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फर्म्मयोगपरीक्षा है--'बढ़ा आदमी'। धन से भी आदमी 'घडा आदमी” बन जाता है, विद्या से भी बड़प्पन मान लिया जाता है। देशसेचा में अप्रणी, देश फे लिए सर्वस्त्र न्‍्योद्दावर कर देनेवाला भी वडा भादमी कदा जाता द। इस प्रकार 'बड़ा आदमी”? इस वाक्य की सभी परिभाषाएं बन सकतीं हं । परन्तु जव वत्तेमानयुग फी दृष्टि से अपने सहजन्नान फे आधार पर इस धाक्य की परिभाषा करने चलते है, तो हमारे सामने उपस्थित होता दे यह वाफ्य-- जो सच कमी कहे नहीं, झूठ कमी थोढे नहीं, पहदी बड़ा आदमी है'। मुकुछित नयन वन कर इस सहज परिभाषा का मनन क्षीजिएण, और इसी परिभाषा के आधार पर धवड़ा भादमी' वाक्य की ध्याप्ति का यत्र-तत्र-स्व्र प्रत्यक्ष दशन कीजिए । उक्त परिभाषा का तालप््य वही है; जो पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। जो धार्मिक त्र भँ राजनीति का समावेश कर रहे दूँ, एवं राजनतिक क्षेत्र में धर्मंनीति का घण्ठाघोप कर रहे हैं, वे एक स्थान पर मूठ नहीं बोल रहे, दूसरे स्थान में सच नहीं कद्दू रहें। अतएव वे घढ़े आदमी है, मद्दापुरुप दै। श्रद्धालु मुग्धमनुण्य 'महापुरुण” की इस भयावह व्याप्तिसे परिचय न रखने के कारण अपनी उस पूर्वाक्त जटिल समस्या को लेकर उक्त परिभाषा के आचार्य्य किसी एक महापुरुष की शरण में पहुंचता है, और नम्रभावेन निवेदन करता है कि/-भगवन्‌ | देश के काम में हाथ बटाने की इच्छा दे। परन्तु धर्म्मभीरुता पीछे हृटाती है। इस क्षेत्र में खान-पान, स्पृश्यास्पश्य-जाति-वर्ण का कोई समादर नहीं है। अलुप्रह कर कोई मार्ग बतछा5ए। उत्तर सुनिष-- अरे माई | बड़ी भूल कर रदे हो। परतन्त्र राष्ट्र का क्या धर्म्म, प्या जाति, ्या वणं । जवतक तुम्दारा देश स्वतन्त्र नदी हो जाता; तवतक तुम धर्मपालनं नदीं कर सकते। तुम्दारा इस समय मुख्यधर्म देशसेवा दी दै। आजादी हासि करना पहिला धर्म है। जब स्वतन्त्रता प्राप्त कर लो, तब धर्म्मंमार्ग पर दृष्टि डाठना। अभी तो सर्वेतोभावेन अपनी धर्म्मेनीति के स्थान में राजनीति का ही प्रतिप्ापन द्ोना चाहिए” । उत्तर में छुछ भी तो मूठ नहीं है। महापुरुप भी भछा कभी मठ बोला करते हैं। युक्ति, तक-सम्मत दुद्धिगम्य उत्तर है। धस्मक्षेत्र पर राजनीतिक्षेत्र का आक्रमण है। श्रद्धाविश्वास पर वृद्धिवाद का आधिपत्य है। अस्तु, इस बुद्धिवादसम्मत उत्तर से उस श्रद्धालु की धर्माश्रद्धा की प्रन्थियाँ ढीलीं पड जातीं हैं। सचमुच इसे मान ठेना पड़ता है कि, राष्ट्रस्वातल्त््य फे सामने व्यक्तिगत धम्म का कोई मूल्य नहीं। राजनीति, धर्म्मनीति के ५१९




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