सिद्धान्त समीक्षा (भाग २) | Siddhant Samiksha (Bhaag - 2)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११० तो जरूर होवेगा परन्तु उस स्वाद में स्वस्थ अवस्था के से स्वाद से मिन्नता अवश्य पाई जायंगी | इसी प्रकार नाक दबाकर जर पीओ तत्र जल का रस ज्ञान होगा, परन्तु नांक खोलकर पीने से जो ज्ञान होता है वह न होगा |-इससे यह तो स्पष्ट है कि सयोगी ज्ञान अनेक होना स्वाभाविक दै, जब कि एक क्षरीर म एक ही पंचेन्द्रिय सम्पन्न आत्मा है | यह करपना आपकी द्रव्यत्री को मोक्ष अधिकार नहीं दिला सकती । में एक बात और भी इस सम्बन्ध भें लिखना चाहता ई कि प्रोफेसर साव ने केवल भागम वाक्य ही बताकर सीमुक्ति का समथेन किया -द्वो यह्ष बात नहीं है। उन्होंने काफी युक्तिवाद का संग्रद्न किया है. जो कि उनकी खुद की कल्पनायें हैं जिनका निराकरण ऊपर किया जा चुका हि | अब में उन तकों का उल्लेख किये बिना नहीं। रह सकता जो आचाये प्रवर तार्किकन्सूय সমান चन्द्रजी ने अपने लिखे हुए प्रमेय-कमल-मातैड में दिये हैं (१) भागम प्रमाण उन्ददोंने यद्द दिया है ( देखिये पुस्तकाकार प्रकाशित मातंड का ३३३ वां पेज ) “ नाप्यागमाव्‌ , तन्मुक्तिप्रतिपादकस्या- त्यामावात्‌ अथे---आगम से भी द्रव्य ख्ी का मोक्ष नहीं सिद्ध হী सकता, क्योंकि ज्री को मोक्ष बतछाने वाढे आगम का অমান है । गाथा-- पुंवेदं चेदंता जे पुरिसा खवगसेढिमारूढ़ा ॥ सेसोद्येण वि तद्दा झाणुवजुत्ता य ते दु सिज्झेति ॥ १॥ उपरोक्त आचीन गाथा स्फुट रुप से द्वव्य ञ्ली मुक्ति की निषेधक है । (१) पुंबेद द्वी मोक्ष का प्रयोजक है । (र) क्ली वेद नाम कम अशुभ कम है जिपे मोक्ष माने वाढा जीव प्रवैभव में




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