लोकसाहित्य और संस्कृति | Lok Sahitya Aur Sanskriti
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.4 MB
कुल पष्ठ :
188
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. दिनेश्वर प्रसाद - Dr. Dineshwar Prasad
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मिथ वा स्वरूप दे परिभाषा की भ्रपेन्ना मिथिक घारणाग्ा की परिभाषा कही श्रधिक सरल हु । मिथिव धारणाएँ विश्व के गठन और उत्पत्तिसम्ब यी श्रापारभूत विचार हू । थे मिथिक प्राणिया के जीवन वी घटनामों श्रौर हमारे समवालीन प्राय परिचित व्यक्तिया क॑ श्रदमृत इदया भौर कप्टा से सम्बधित नानवहानिया में प्रविष्ट हो जाती ह। जिनरत्र ए बापॉलॉजी ६०६ मिथ श्रौर नोककहानी के पाथक्य निर्देश मं कठिनाई वा श्रतुभव वरते हुए भा बोगधाज ने इनवा एक भेदक आधार टिया ह। उसके अनुसार थे कथाएँ मिथ ₹ जिनमें क प्राइतिक व्यापारों का मानवीकरण किया गया ह श्रौर जिन्हें ख किसी प्रागतिहासिक युग से सम्बद्ध कर दिया गया ह|। उसने लोक्वहानियों को आधुनिक कहानी या उप यास-साहित्य का समीपवर्ती माना हू । इनकी उत्पत्ति दनाटिन झनुभव के साथ कल्पना के मुक्त विहार से हुई है । उसने मिथ भ्रौर लोककहानी में एक भर भेद माना ह--मिय गम्मीरता से गृहीत होते हु विन्तु लोवक्हानियाँ मनोरजन का विपय मानी जाती हू । वोझाज द्वारा प्रस्तुत मिथ भ्रौर कहानी व॑ भेदक लक्षण दाना वे अन्तर को स्पष्ट नहीं कर पाते । सास्टतिक-मनोवचानिक सापेक्षता के भ्राधार पर विचार न करने के कारण ही वह इस समस्या वा समाधान देने में श्रसमथ रहा है वस्तुत इन दाना का भेदव तत्व विश्वास हैं। मिय वह कया हू जो किसी समु दाय द्वारा सत्य मानी जाती हैं । किन्तु सत्य की धारणा सदव एक जसी नहीं रहती । इसलिए जसा कि टायलर ने कहा हु सम्भायत्ता के सामाजिक प्रति मान के दल जाने पर एक युग का मिथ दूसरे युग की लाककहानी हो जाता ह। इसके विपरीत यह भी सत्य हू कि प्रयाभा श्रौर विश्वासो के समयन में प्रयुक्त होने पर लावकहानी मिथ वन जाती है । मिथ बेवल श्रादिम जातियों में ही नही वरन् झादिम स्तर से श्रागे बढ़ी हुई जातिया में भी प्रचलित हूं। इसका एक कारण बहुत से मिथों बा श्रादिम स्थिति से परवर्ती स्थितियों में प्रवाहित होना हैं। इनके अबौद्धिक स्वरूप को दखत हुए यह विश्वास करना कठिन हू कि ये किसी निक्टवर्ती श्रहीत की उपज हू | झाधुनिक सनुष्य क्रमश दौद्धिन भ्रौर सशयप्रिप होता गया हैं । इस घारणा वे आधार पर विकासवादी ने यह श्रनुमान किया कि ये मानव सस्कृति वी एक विशप स्थिति वी ही रचना हा सकते हू । मानववित्ान के पिता टायलर ई० वी० ने उस स्थिति को मिथसजक माइ्यापादक या मिथ मेकिंग युग कहा । उसने श्रौर उससे प्रभावित होकर प्रैशर ने मानव सस्कृति माय के विकास वी तीन युगों में विमाजित किया--जाईूं का सुगं धम का युग श्ौर विलान वा युग । जादू दे युग में सनुष्य प्रति को सजीवता में विश्वास करवा
User Reviews
No Reviews | Add Yours...