हिन्दी के आलोचक | Hindi Ke Alochak

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Hindi Ke Alochak by शचीरानी गुर्टु - Shacheerani Gurtu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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11 मौत और अँधेरे और फ्रायडीय मनोविज्ञान के बारीक से बारीक रेशों की तराश आप को उनके यहाँ मिल जायगी, मगर शासक-वर्ग के बड़े से बड़े जुल्म और बड़ी से बड़ी सख्तियाँ, गोलियाँ और लाठियाँ ओर पुलिस की हिरासत में और जेलों में दी गई यंत्रणाएं---इनकी सब की कोई प्रतिध्वनि इस कवि-हृदय में नही होती, इनके खिलाफ एक भी प्रतिवाद का स्वर उसके मुंह से नही निकलता । मरे हुए कुत्ते को देखकर यह बीस पंक्तियों की एक कविता लिख सकता है, मगर सलेम के जेल गोलीकांड में मरे हुए पच्चीस और घायल एक सौ राजबंदियों की बाबत पढ़कर और सुनकर उसे दो पंक्तियाँ लिखने की भी प्रेरणा नही होती। कवि कहेगा--यह मेरा स्वानुभूत नहीं है।” (अमृतराय, 'हंस', दिसम्बर, १९५१) और इसी तरह फ्रायडीय पद्धति की कुत्सित मनोवैज्ञानिकता को कड़ी लताड़ देते हुए शिवदानसिह चौहान ने लिखा हैं : “मौटे तौर पर, मनुष्य की मानसिक प्रतिक्रियाओं का अव्ययन करके सहज वृत्तियों, आवेगों और भावनाओं को अधिक मानवीय, संस्कृत और स्वस्थ बनाने वाले सामाजिक प्रभावों का निदश करना मनोविज्ञान का काम है। परन्तु ये मनोवेज्ञानिक ! इन लकड़बग्घों के घणित मनोविज्ञान पर टिप्पणी करना भी किसी इंसान का स्वाभिमान गवारा नही कर सकता । ` ` * ` ` “ ` * * * “ * * मानवीय विचार, नैतिक, मर्यादा, मानवीय भाव, सांस्कृतिक परम्परा, समाज संबध, कलारदशेन, विज्ञान आज कोई चीज़ भी तो इन मौत कं व्यापारियों के निकट सत्य ओर पृनौत नही है । मानव- आत्मा ओर मानव-विवेक की हत्या करके वहाँ पर एक विक्षिप्त नरभक्षी कुभकरण को जगाना आज उनकी विध्वंस योजना का अनिवाय अंग ह। उनका दुःस्वप्न कभी सफल नहीं हौ सकता, क्योकि जीवन मृत्यु से अधिकं बलवान हे।'' (नई चेतना, अंक ४, १९५१) मगर मानवीय विवेक जगानेवाली ओर सद्भावना व हमदर्दी से विचारों के आदान-प्रदान की चीज़ें इधर कम लिखी जा रही है। कुछ अस से प्रगतिवादी समीक्षा में ऐसी शाब्दिक पटेबाज़ी चल रही हैँ कि ये लोग खुद एक दूसरे पर कीचड़ उछालकर बेबुनियाद सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार में समय नष्ट कर रहे है । अविश्वास और क्षुद्र अहंकार ने उनके बीच दुर्लध्य प्राचीरें खड़ी कर दी हे । इसका एक सबसे बडा कारण यह है कि प्रगतिवादी या माक्सवादी कदे जानं वाके आलोचक अधिकतर तो वे अधकच रे अवसरवादी नवयुवक जो नवीनता की चकाचौध में बे-पर के उड़कर धरती पर पैर टिकाना नहीं चाहते । वे बदहवास एड़ लगाकर इस क़दर आगे बढ़ने की हिमाक़त कर रहे हैं कि प्रगति की दौड़ में सबको पीछे ढकेल देना चाहते है । ऐसे गे रजिम्मेदार लेखक न साहित्य को नई परम्परा दे सकते हे, न गंभीर मौलिक जीवन-दृष्टि और न मानव-हृदय को उद्देलित करने वाला अन्तर्भावो का घात-प्रतिवात । प्रगतिवादी विचारधारा के कतिपय




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