महादेवी वर्मा | Mahadevi Varma

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Mahadevi Varma by शचीरानी गुर्टु - Shacheerani Gurtu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र्‌ महाखेता महादेवी देवेन्द्र सत्यार्थी [ धटमटठिमाते तारों में कवयित्री अपना इतिहास सोजती है, मथु-बयार जीवम का सन्देश ल्यती है | कभी वेदना उसके मन पर छा जाती है और वह '“नीर भरी दुख की बदली” से अपनी तुलना करने रूगती है | ऑसू ही उसके प्रिय सास है। फिर पग- पग पर सगीत प्रतिव्वनित हो उठता है आर वह गायक फो सम्बोधन करती है-- दीपक राग के स्पर्ग से सभी दीप जल उठते है, फिर जीवन के मन्दिर म॑ कैसे अन्धकार रह सफता हैं ? रात का अन्धफार वेदना लता है, भोर होने पर जीवन का उल्लास उभरता है। भोरहोने पर किसी को सोना नहीं चाहिए--- (फेर सजग ऑसे उनीदी आज केसा व्यस्त बाना ! जाग तुझको दूर जाना कविता मे कवयिन्नी अपने ही जीवन की आवाज प्रस्तुत करती है और जिस ईमानदारी और सचाई से वह अपना स्वर छेडती हे उस पर पाठक को रसबन्देद् नही होता | पग पण पर एफ प्रतीक-सा उभरता है | इस कविता में इतनी क्षमता है कि जीवन को अपने पख्री मे समेट के |” ] महादेवी को मैने जत भी देखा खादी की उसी सफेद धोती में | एक ही अन्तर दिखाई दिया । अब वे भति गाभीर मुद्रा के स्थान पर खुलकर दँसने से अधिक विश्वास रखती है । अठारद साछ पहले हुई थी पहलछी भेंट । वे देहरादून के कन्या गुरुकुछ क्के दीक्षान्च समारोह में भाषण देने आई थी । बस, धहीं मैने उन्हें देखा | खादी की सफेद घोती में कछिपटा हुआ शरीर, शुख पर गास्भीर्य की रेखाएँ। में जेसे एकदस उनके रोब से आ गया। उनकी वाणी से अवश्य पुझ् अकर्पण था--उसी से सिचा हुआ मैं उनकी ओर बढ़ा। दीक्षान्तनसमारोह के पश्चात्‌ उन्हें अनेक व्यक्तियों ने अपनी बातो मे उलझा रखा था | वे जढद जल्ठ सब से बिदा के रही थीौं--उस समय सुझे उन खानाबदोशी का ध्यान आया जो एक स्थान में थोड़ा समय बिताकर




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