मार्कण्डेय और शिव प्रसाद के कहानियों का तुलनात्मक मूल्यांकन | Markandey Aur Shiv Prasad Ki Kahaniyo Ka Tulnatmak Mulyankan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किसानों के बीच टकराव सम्भव था।* कलियुग की अवधारणा एवं भक्ति तथा पुराणों में देवता-राक्षस कथाएं इसी की देन हो तो आश्चर्य नहीं। गुप्तकाल में एक नये ढंग के गॉव सामने आते हैं जहाँ राज प्रसाद-प्राप्त लोगों को आश्रय मिलता था। मार्कण्डेय पुराण बतलाता है कि ऐसे गाँवों में अधिकांशत: दुष्ट और शक्तिशाली लोग रहते थे, इनके पास अपनी जमीन ओर खेती-बारी नहीं होती थी और ये दूसरों की जमीन और खेती-बारी पर जीते थे।” ऋषियों के जंगलों में रहने की जो अवधारणा बनी उसके पीछे भी सम्भवतः भूमि-अनुदान या कृषि प्रसार ही था। लोकनाथ के टिपड़ा अभिलेख“ मे 100 ब्राह्मणों के जीवन निर्वाह के लिए जंगली इलाका दान दिये जाने का प्रमाण मिलता है। ऐसे में पुराण-आख्यानों में तमाम ऋषियों की कटी जंगलों मे मिलना स्वाभाविक ही था। रामायण की कथाओं एवं पुराणों के राक्षस सम्भवतः एसे ही क्षेत्रं के मूल बासिन्दे रहे होगे जो अपने अधिकारो को छिनते देख उत्पात पर उतर आते रहे होगे । अतः प्राचीन कथाएं, धार्मिक कथाएं मात्र न होकर इतिहास का एक पक्ष है। साथ ही तत्कालीन समाज को समञ्चने का एक जरिया भी। नैतिक कथाओं का आधार भी यही हे । यह मानना खाम खयाली है कि नीतिशास्त्र ओर मानदण्ड, मूल्य आदि हवा में बनते हैं और वहाँ से हमेशा मानव सभ्यता पर प्रभाव॑ डालते है। 1.3 कथा साहित्य की परम्परा और ऋग्वेद कथा-साहित्य की परम्परा का उद्गम वैदिक साहित्य से ही माना जा सकता है। ऋग्वेद मे करई संवाद-सूक्त हैं, जिनसे कथा-साहित्य का मुख्य संवाद तत्व प्राप्त होता है। ऋग्वेद में मानवेतर जीवों को मानव का प्रतिनिधि बनाया गया है और उनसे वैयक्तिक सम्पर्क स्थापित किया गया है। ऋग्वेद 10-108 में” देवशुनी सरमा और पणियों का संवाद प्रस्तुत किया गया है। इसमें सरमा (कुतिया) पणियों (कृपणों) को उपदेश देती है।” इससे आस-पास के जीवन, परिवेश से सम्बन्ध का पता चलता है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात कि इसी परम्परा का विकास प्रेमचन्द (दो बैलों की कथा) तथा मार्कण्डेय तक प्रलय ओर मनुष्य, सवरइया) मे मिलता है जो युगीन सन्दर्भौ एवं संवेदनाओं से सम्पुक्त होकर भी एक देशीपन एवं जातीयता लिए हुए है। 9




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