जय - दोल | Jai Dol
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
168
श्रेणी :
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No Information available about सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' - Sachchidananda Vatsyayan 'Agyey'
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पार का धीरज १७
जो श्राव श्रौर चली जावे, मे तुम्हे--मं तुम्हें--अपनी छाया की तरह
चाहता हैँ, हर समय मेरे साथ, जब भी चॉदनी निकले तभी उभर कर
मुभ घेर लेने वाली--”
“झौर जब चाँदनी न हो तव क्या श्रच्धकार मुभे लील केगा--
নী আজ ?' राजकूमारी का शरीर सिहर उल ।
“तब तुम मुभी में बसी रहोगी, राजकुमारी ! ”
दूर कहीं पर चोंककर तीतर पुकार उठे। पहुले एक, फिर दूसरी
श्रोर से और एक । राजकमारी ने सचेत होकर कहा, “अच्छा, कु वर,
में चली । कल फिर श्राऊँगी | तुम चिन्ता मत करता |”
कुबर ने कहा, “राजकुमारी 1” फिर कृच भर्राये से स्वर में
कहा--हेमा |
हेमा ते धीरे से कहा, “भ्रपने चाँद को तुम्हे सौप जाती हूँ। देवता
तुम्हारी रक्षा करें, क् वर--
उसने जल्दी से चादर श्रोदी श्रौर निःशब्द लचीली गति से सीढ़ियों
चढ़ चली |
कवर ने एक वार दक्षिण श्राकाश में उभरे बुद्दिक को देखा, फिर
भूक कर पानी में हो लिया और क्षण भर में हाथी की पीठ पर पहुँच
गया । श्रंधेरे का एक पु ज-सा पानी में से उठा श्र क्ड के छोर पर
प्र॑धेरे की एफ बडी-सी कन्दय में खो गया ।
हेमा का स्वर फिर पास कहीं मोला, “समभे ? '
किशोर ते कहा, “राजकुमारी, तुम तो कहती हो वह्॒प्यार नह
करता ? बह तो---
“कब कहती हूँ नहीं करता था ? पर मुभ नहीं, श्रपत्ती प्रलमिंते
छाया को । तभी तो मुभे छोडकर चला गया--/
चलां गया १ 78
“हाँ, दूसरे दिन वह नही भाया । मैं देर रात -तक कुंड पर वैदी
रही । तीसरे विन भी नहीं। फिर पता लगा, जहाँ मेरी सगाई हुईं थी
है
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