जय - दोल | Jai Dol

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Jai Dol by अज्ञेय - Agyey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पार का धीरज १७ जो श्राव श्रौर चली जावे, मे तुम्हे--मं तुम्हें--अपनी छाया की तरह चाहता हैँ, हर समय मेरे साथ, जब भी चॉदनी निकले तभी उभर कर मुभ घेर लेने वाली--” “झौर जब चाँदनी न हो तव क्या श्रच्धकार मुभे लील केगा-- নী আজ ?' राजकूमारी का शरीर सिहर उल । “तब तुम मुभी में बसी रहोगी, राजकुमारी ! ” दूर कहीं पर चोंककर तीतर पुकार उठे। पहुले एक, फिर दूसरी श्रोर से और एक । राजकमारी ने सचेत होकर कहा, “अच्छा, कु वर, में चली । कल फिर श्राऊँगी | तुम चिन्ता मत करता |” कुबर ने कहा, “राजकुमारी 1” फिर कृच भर्राये से स्वर में कहा--हेमा | हेमा ते धीरे से कहा, “भ्रपने चाँद को तुम्हे सौप जाती हूँ। देवता तुम्हारी रक्षा करें, क्‌ वर-- उसने जल्दी से चादर श्रोदी श्रौर निःशब्द लचीली गति से सीढ़ियों चढ़ चली | कवर ने एक वार दक्षिण श्राकाश में उभरे बुद्दिक को देखा, फिर भूक कर पानी में हो लिया और क्षण भर में हाथी की पीठ पर पहुँच गया । श्रंधेरे का एक पु ज-सा पानी में से उठा श्र क्‌ड के छोर पर प्र॑धेरे की एफ बडी-सी कन्दय में खो गया । हेमा का स्वर फिर पास कहीं मोला, “समभे ? ' किशोर ते कहा, “राजकुमारी, तुम तो कहती हो वह्‌॒प्यार नह करता ? बह तो--- “कब कहती हूँ नहीं करता था ? पर मुभ नहीं, श्रपत्ती प्रलमिंते छाया को । तभी तो मुभे छोडकर चला गया--/ चलां गया १ 78 “हाँ, दूसरे दिन वह नही भाया । मैं देर रात -तक कुंड पर वैदी रही । तीसरे विन भी नहीं। फिर पता लगा, जहाँ मेरी सगाई हुईं थी है




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