शरत - साहित्य | Sharat ~ Saahitya

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Sharat ~ Saahitya by धन्यकुमार जैन - Dhanykumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ षोड़शी [ द्वितीय पोड़्शी--नहीं । जीवानन्द--मेंने सुना है, तुम्होर कई पुरुष मित्र हैं। सच बात है ! पोड़शी---( सिर हिकाकर ) नहीं, झूठी बात है । जीवानन्द --( कुछ देर चुप रहकर ) तुमसे पहलेकी सभी भेरवियों शराब पिया करती थीं,--सच है ? मातड़ी भेरवीका चरित्र अच्छा नहीं था,--अब भी उसके गवाह मौजूद हैं | सच है या झूठ ? पोड़शी ---( नित मृदु स्वर्म ) सच ही तो सुनती हूँ । जीवानन्द--सुना है ? अच्छी बात है। तो सहसा तुम ही क्यो परम्परा छोड़कर, गोत्र छोड़कर, भली बनना चाहती हो ? ( सहसा सतर होकर बेठके कठोर स्वरमें ) ओरतोंके साथ में बहस भी नहीं करता और न उनकी राय- गेरराय ही जानना चाहता हूँ। तुम अच्छी हो या बुरी,---बालकी खाल निकालकर उसका न्याय करनेके लिए भी मेरे पास वक्तं नहीं है। मेस कहना है, चण्डीगढ़की पुरानी भैरवियोंकी जैसे गुजर हुई है, तुम्हारी भी वैसे ही गुजर हो जाय तो काफी है। आज तुम इसी मकानमें रहोगी । | ভন্ধন सुनकर घोड़शी वज्राहतकी तरह णकवारमी पत्थर-सी खडीकी खडी रट्‌ जाती टै 1 जीवानन्द - तुम्हारे मामले किंस तरह इतना सहन कर मका, मै खुद नहीं जानता । ओर कोई बेअदबी करती तो उसे पियादोके घर भेज देता । बहुतोंको ऐसा किया है । সান্তহী-_( अकस्मात्‌ रे पड़ती है और गरेमे अचछ डाककर निहोरेके स्व॒रमे हाथ जोड़कर कहती हे---) मेरे पास जो कुछ है, सब लेकर आज मुझे छोड़ दीजिए । जीवानन्द--क्यों भला ? ऐसा रोना-धोना भी मेरे लिए. नया नहीं है, ऐसी भीख भी में नई नहीं सुन रहा हूँ। मगर उन सबके पति-पुत्र थे,---उनकी बात तो कुछ कुछ समञ्चमे भी आती थी; ८ षोडशी मे आशक सिहर उठती ह ) मगर तुम्हारे तो वैसी काई बला ही नहीं है। पन्द्रह-सोलह सालके अन्दर तुमने तो अपने पतिको ओखोसे भी नहीं देखा । इसके सिवा तुम लोगोके छिए इसमे कोई दोष भी नहीं है । परोडशी-- ८ दाथ जोड़कर आँसुओसे रूँचे हुए गठेसे ) यह सच है किं पतिक मुझे अच्छी तरह याद नहीं, लेकिन वे हैं तो सही ! सच कहती हूँ आपसे,




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