क्रन्तिकारी तुलसी | Krantikari Tulsi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यह उलटी घारा क्यों ? इस संसार में उलटोी-धारा मे बहने वाला या तो उपहास का पात्र बन कर रह जाता है या फिर क्रान्तकारी ही कहलाने का अधिकारी बन बैठता है। इधर मै प्रायः उलटी-घारा मे ही बहा हूँ । एक बेचारे सीधे-सादे संसार से विरक्त तिलकधारी चातक की रटन को आदर मानकर नित्य राम- नाम की माला फेरने वाले परम केष्णव भक्त-प्रवर तुलसी को असाम्प्र- दायिक सहाक्रास्तकारी क्मंयोगी के रूप में खड़ा करना आप कहेंगे पागल- पन नही तो क्या है आखिर यह उलटी धारा क्यों ? आलोचना के आवेद मे विष-रस-भरी- कनक-घट जैसी मानस-मीमाँसा की तुलसी के प्रति कट दूषित और अन्याय- पुर्ण भाषा और भावनाओं को देखकर हृदय तिलमिला उठा । कलम उठी और मानस-मीमासा में बहाई हुई धारा के विरुद्ध उल्टी धारा बहाना आरम्भ कर दिया परन्तु कुछ समय बाद अन्तरात्मा में प्रतिक्रिया हुई लेखनी ठिठकी । अन्तःप्ररणा हुई कि व्यक्तिगत आलोचना में उलझने के बजाय उसी विषय पर व्यापक इष्टि से कोई समाजोपयोगी ग्रन्थ लिखा जाय तो अधिक उपयोगी होगा । बस विचार बदल पड़ा । लेखनी ने रुख फेरा और व्यापक भाव से प्रेरित होकर वह लगी बहाने वही उल्टी गंग-धारा जो आज आपके समक्ष इस पुस्तक-रूप में प्रस्तुत है । उछटी धारा--नहीं उल्टी गंग-घारा बहाना कुछ आसान नही । एक तो यों हीं वर्षों पुरानी विचार-धाराओं के विरुद्ध चूँ करना कठिन होता है । फिर उनके खण्डनार्थ तथा अपने मत के मण्डनाथं प्रचुर प्रामाणिक सामग्री तथा प्रखर बौद्धिक बल चाहिए । प्रामाणिक और पर्याप्त सामग्री एकत्र करने के हेतु जीवन के व्यापक क्षेत्रों में बहुत काल तक एक गंभीर




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