साहित्यरत्न पथ प्रदर्शक -भाग 1 | Sahitya Ratna Path-pradarshak Vol- 1
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
कुमुद विद्यालंकार - Kumud Vidyalankar,
डॉ मनमोहन गौतम - Dr. Manmohan Gautam,
राजेंद्र प्रसाद शर्मा - RAJENDRA PRASAD SHARMA,
सरोज - SAROJ
डॉ मनमोहन गौतम - Dr. Manmohan Gautam,
राजेंद्र प्रसाद शर्मा - RAJENDRA PRASAD SHARMA,
सरोज - SAROJ
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
187 MB
कुल पष्ठ :
1338
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
कुमुद विद्यालंकार - Kumud Vidyalankar
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डॉ मनमोहन गौतम - Dr. Manmohan Gautam
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राजेंद्र प्रसाद शर्मा - RAJENDRA PRASAD SHARMA
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)८ साहित्यरत्न (प्रथम खण्ड) पथ-प्रदर्शक
आपको मद्रासी भाषा सुननी है तो किसी घड़े में कंकड़ डालकर जोर-जोर से
बजाइये वही मद्रासी भाषा है) । अस्तु, उपरोक्त मत में वास्तव में भाषा और
बीरों, दोनों का ही अपमान निहित है । इस मत के अनुसार भाषा (डिंगल)
केवल बाजे की ध्वनिमात्र है और वीर केवल दरीर के प्रतीक ।
दूसरी बात यह है कि उपरोक्त कथन में जो महादेव को, वीर रस का देवता
बताया गया है, यह भी ठीक नहीं है क्योंकि वीररस के अ्रथिष्ठातू-देवता इन्द्र
हैं, शिवजी तो रौद्र-रस के देवता हैं | अतः सभी दृष्टियों से इस मत की अर्थ-
हीनता एवं निस्सारता प्रमाणित हो जाती है ।
पाँचवा भमत--क्री मोतीलाल मेतारिया एम० ए० का मत है---
“सभी मानते हैं कि प्रारम्भ में डिंगल एक तरह से चारण-भाटों की ही
भाषा थी और अपनी काव्य रचनायें ये लोग बहुधा इसी भाषा में किया करते
थे । इसके साथ ही साथ यह भी सभी पर विदित है कि अपने झ्राश्नयदाताओं के
कीर्य-कलापों का, उनके शौयं-पराक्रम का ये लोग बहुत बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन
किया करते थे। धन के लोभ से - कायर को 'शूर, कुरूप को सुन्दर, भूख को
पण्डित और कृपण को दानी कह देना इनके लिए एक साधारण बात थी ।
सत्यासत्य के यथार्थ निरूपण की अपेक्षा, हाँ-हुज्डूरी द्वारा अ्रपने स्वामियों को
खुश करके उनसे अपना स्वार्थ साधने की ओर इतका ध्यान विशेष रहता था ।
. कारण कविता उनंकी जीविका ही तो ठहरी । अतएवं उनके वर्णान अधिकांश में
अत्युक्तिपूर्ण हुआ करते थे । भ्रर्थात् वे डींग हाँका करते थे । इसलिए जो भाषा
इस प्रकार के डींग हकिने के काम में लाई जाती थी, उसका शीतल, श्यामल
रादि शब्दों के श्रनुकरणं पर लोगों ने, सम्भवतः श्रोतारो ने, डीगल (डींग से
युक्त) नाम रख दिया जिसका परिमाजित कहिए अथवा विकृत रूप, यह् श्राधु-
{निक शब्द “डिगल” है॥ राजस्थान में बुद्ध चारण-भाट आज भी 'डिगल' न
कहकर डींगल' ही बोलते हैं । इस प्रकार से बने हुए दो एक शब्द और भी
'डींगल' भाषा में मिलते हैं । जैसे---
#अकग्ररिये इस बार दागल को सारो -हुनी । --दुरसाजी
“यह 'दागल' शब्द লা |+-ल' से बना है और इसका अर्थ है---दाग से युक्त,
दागवाला॥ हिन्दी में भी अरहुत से ऐसे शब्द पाये जाते हैं जिनकी उत्पत्ति भी.
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