वेदान्त दर्शन पूर्वार्द्ध | Vedanat Darshan Purvarddh

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Vedanat Darshan Purvarddh by स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती Swami Darshananand Sarswti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १२) उपरान्त खामीजी को स्कू् में फाँसने की बहुत कोशिश की गई ; परन्तु यह स्वतंत्र जीव वन्धन की शिक्षा को कब पसन्द कर सकता था। घर का काम-काज भो सोंपा गया, वाशिज्य- व्यवसाय का फन्दा भी डाला गया ; मगर सारे यत्न इनके फाँसने में असमर्थ रहे। इसी धीच में आपको आश्येसामाजिक पुस्तके पढ़ने का चस्ला लग गया और इन पुस्तकों ढवारा आपकी पूरे जन्म को सुप्त प्रतिभा जाग उठो। फिर आप अपने पितामह परिहत दौलतराम के पास जो काशी-वास करते थे पहुंच गये | वहाँ रहकर आपने संस्कृत भाषा पढ़ो ओर बेदिक दरशनों का गुरुमुख से अध्ययन किया ; क्योंकि आप संरकारी जीव थे | छहों दशन आपको ऐसे ही आ गए जैसे कि ५वं की याद की উই वात जरा से निमित्त से याद श्रा जाती है। आपय्ये-समाज के प्रचार की आपको धुन थी। उन दिनों जहाँ-तहाँ शाला की वाद आई रहती थी। शाश्च फे मेदान मे वस श्रापही फा वोल- वाल्ला था । मौली, परिडत चनौर पाद्री इत्यादि कोई भी षेरिक धमे का प्रतिपत्ती बनकर शरवे, श्र/पसे निरुत्तर या संतुष्ट होकर जाता था। पं० कृपाराम होने की दशा में ही आपके व्यास्यानों की धूम मच गई थी। उदार आप इतने थे कि काशी में प्रेस खोला, वो वहुत सी पुस्तक विद्यार्थियों को योंही दे दिया करते थे ओर यदि मेनेजर आदि कीमत का प्रभ उधते, तो श्राप कहते कि लक्ष्मी के कारण सरखती का प्रचार बन्द नहीं होना चाहिए अर्थात्‌ धन न होने से कोई विद्यार्थी पुस्तक से वल्नित न रह जाबे। भत्ता ऐसा प्रेस चल ही कया सकता था। आप लगे रहते थे आय्य-समाजिक जसां में व्यास्यान देने में ; ऐसी अवद्या मे प्रेस ॐ कमेचारौ क्यों सावधानी से काम करते । बस इसी प्रकार घर का कई हज़ार रुपया उठा दिया और मन:




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