समीक्षा के सन्दर्भ | Samiksha Ke Sandarbh

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Samiksha Ke Sandarbh by भगवतशरण उपाध्याय - Bhagwatsharan Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिनकर्‌ की उर्वेणी १५ पहुले शब्दों का भाव-पक्ष ले। पहले ही पृष्ठ पर एक वर्णन है जो दूसरे पृष्ठ तक चला गया हे--प्रथमग्रासे मक्षिकापात --कंवि 'हादणी चद्रमा' के 'निर्मेंष गगन! का वर्णन कर रहा है--- खुली नीलिमा पर विकीर्णं तारे यो दीय रहे है, चमक रहे हो नील चीर पर कूटे ज्यो चाँदी के, तारो-घरे गगन मे ˆ चन्द्रमा द्वारा दीपित शुवटपक्ष की द्वादणौ का आकाण क्या तारो भरा हो सकता है ? क्या तव गगन के उपर इतने तारे ष्दीपते' है कि लगे किं शीले चीर पर चाँदी के बूटे हो ?” सभवत तव तो ज्वलत नक्षत्र भी चन्द्रमा के तेज से अभिभूत हो मलिन पड जाते है। पृष्ठ २४ पर कवि अप्सरा चित्नलेखा के मन पर सोने के तार मढ रहा है। तार चाहे सोने का ही क्यों न हो, 'मढते' समय कील और हथौडो की आवश्यकता निश्चय पड़ेगी, और तब मन पर उनकी चुटीली मार से कवि-हृदय विरत हो जायेगा । दो पृष्ठ १हले एक पक्ति ই एक घार पर किस राजा का रहता वेधा प्रणय है? ्वाट-घाट का पानी पीना' লিক मुदटावरा है, पर घाट অনা केवल गधे के सम्बन्ध में ही सार्थक हो सकता है, या उस कुत्ते के सम्बन्ध में जो न घर का होता है न घाट का, पर मुहावरे की ध्वनि के अनुकूल दोनो से बँधा रहता है, घर से भी घाट से भी, अथवा घर से या घाट से। प्रृष्ठ ३७ यर “जोहा करती हूँ मुख को' उस मुहावरे को 'सुख' से तुक मिलाने के लिए मुंह से भिन्न कर देना शायद मुनासिव न था । असफलता में चाहें आदमी को माँ का वक्ष याद आता हो पर 'सकट में युवती का शैयाकक्ष याद आता है' यह्‌ कल्पना कवि की अपनी हो सकती है किन्तु सामान्य नर की कतई नही है । वस्तुत. 'असफलता में नहीं, सकट मे ही माँ का वक्ष, या वेहतर माँ याद आती है, युवती का জীঘা- कक्ष' वसस्‍्तुत सकट में भूल जाया करता है (प° ३८) । पृष्ठ ४३ पर एक निदेग है--'गधमादन पवेत पर पुरूरवा ओौर उर्वशी । पुरूरवा गधमादन पर उर्वेणी के साथ खुला विहार करता है, इतना ऐलानियाँ कि कचुकी द्वारा अपनी रानी को उसका सारा माहौल कहला भेजता है इस व्यग्य के साथ कि तव तक रानी व्रतो क्रा आचरण करे, प्रकट ही यह अभिसार' नही है, जिसका उल्लेख पुरूरवा पृष्ठ ४३ की इस पक्ति में करता है जब से हम तुम सिले, न जाने, कितने अभिसारों से । अभिसार रात के अँधेरे मे हुआ करते थे, कभी-कभी शायद उजेली रात मे भी, जैसा 'शुक्लाभिसारिका' णव्द से प्रकट है, और तभी उसके छिपाव के कारण पत्ति के प्रति भरत ओौर वात्स्यायन की शठ' सना सार्थक होती है । इस लाक्ष- णिक शब्द का प्रयोग, कहना न होगा, गछुत है। इसी प्रकार नसो के खून मे




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