महाबंधों | Mahabandhon

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Mahabandhon by फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीयं अज्ञो ओर पूवक एकदेश ज्ञाता श्रोर सोरठ देशके गिरिनगरकी चन्द्रगुफाम निवास करनवाले प्रातः स्मरणीय आचार्य धरसेनके प्रमुग्य शिष्य आचाय पुष्पदन्त ओर भूतबलिने मिलकर जिस चटखणडागमकी रखना की है उसका महाबन्ध यह अ्रन्तिम खण्ड है। इसके मुख्य अ्रधिकार चार ह-प्रकृतित्रन्ध, म्थितिबरन्ध, अनुभागबन्ध ओर प्रदेशबन्ध | इनमेसे प्रकृतिबन्धका सम्पादन और अनुवाद कार्य श्री पं० सुमेरचन्द्र जी दिवाकर [ शास्त्री, न्‍्यायतीर्थ, बी० ए० एल-एल० बी० ] ने अपने सहयोगी ५० परमानन्द जी साहित्याचार्य त्र पं० कुन्दनलाल ओ न्यायती्थं सिवनीके साथ मिलकर किया था। इमे भारतीय ज्ञानपीरते प्रकाशित दृण लगभग पाँच वर्षसे ऊपर हो गए है । यह स्थितिब्रन्ध नामक दूशरा अधिकार है। प्रकृतिबन्धकी अपेक्षा शेप तोनो अधिकार परिमाणमे दने- दून है, इमालए, इस मागम मूजप्रकृतिस्थितित्रन्ध और उत्तरप्रकृतिग्धितिबरन्धका एक जौवकी अपेक्षा अ्रन्तरानु- गम तक्षका भाग ही सम्मिलित किया गया है | हस्तलिखित प्रतिका परिचय-- इसका सम्पादन और अनुवाद कार्य करते समय हमे महाबन्धकी केवल एक प्रति दी उपलब्ध रही है । यह प्रति मेरे जयघवला कार्यालयम कार्य करते समय श्री अखिल भारतवर्पीय दि० जैन सघके साहित्य पत्री श्री प॑र कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीने मूडविद्रीसे प्रतिलिपि करा कर बुलाई थी। भारतीय ज्ञानपीठकी प्रबन्धसमिति ओर उसके सुयोग्य मन्त्री श्री० प॑० भ्योभ्याप्रसादजी गोयलीयने जय यह निश्चय किया कि मदबन्धके आगेके भागोका सम्पादन और अनुवाद कार्य मुझसे कराया जाय ततर जयथवला कार्यालयसे इस प्रांतका प्राप्त करनेके लिए. प्रयत्न किया गया । यद्यपि ऐसे अवसरों पर दुसरे बन्धचु किमी प्रन्थकौ प्रतिश्राटि दनम शनक अड़चने उपस्थित करते ई । वे प्रबन्धके नाम पर उसके स्वामी बनने तकका प्रयत्न करते है| किन्तु इसे प्राप्त करनम ऐसी कोई अड़चन नदी दई । श्रीमान्‌ पं० कैलाशवन्द्र शास््रोजीको इस बातके बिदित होनेपर उन्दौनं तन्काल इम प्रतिको प्रतिलिपिका लागतमात्र दविलवाकेर ज्ञानपीटकां साप दिया | व्ही यद प्रति जिसके आधारमस महाबन्धका आगेका सम्पादन ओर अनुवाद कार्य हो रहा है। यह प्रति श्री पं* वर्ध मान पार्श्च- नाथजी शाम््रीके তনু बन्धु स्व সী प० लोकनाथजी शास्त्रीने ताडपत्रीय प्रतिके आधारमसे प्रतिलिपि करके मजी थी | प्रति फुलस्केप साईजके कांगजें। पर एक ओर हॉसिया छोड़कर की गए है। अक्षर सुर और अन्तरसे লিন हुए होनेमे प्रेसकापीके रूपमे इसीका उपयोग हुआ है । पाठान्तर-- श्री प० सुमेस्चन्द्रजी दिवाकरके पास जो प्रति हैँ वह मी मूडबत्रिद्रीकी ताडपत्रीय प्रतिके आधारस की गई है और यह प्रति भी वहीँसे लिपिबद्ध होकर आई है। ऐसी अवस्थाम इन दोनों प्रतियाभ लेखकके प्रमादसे छूट हुए, या दुद्राकर लिस्बे गये कुछ खलोंको छोड़कर पाठान्तरोंकी कोई भी शंका नहीं क्र सकता। दमारा भी यही अनुमान था | हम समभते थे कि ये दोनों प्रतियां एक ही प्रतिके श्राधारस लिपिबद्ध कराई गई है, इसलिए, इनमे पाठभेद नहीं होगा पर हमे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पाठान्तर इनमे भी उपलब्ध द्वोते है। यद्यपि हमारे सामने पं० सुमेरचन्द्र जी वाली प्रति नहीं है श्रौग न उसे प्राम करनेका कोई प्रयन द्वी किया गया है पर उस प्रतिके आधारसे जो प्रकृतिब्रन्ध मुद्रित हुआ है वह हमारे सामने है। उसके साथ आदर्श प्रति ( जो प्रति हमारे पास है ) के कुछ पृष्ठोका दमने मिलान किया दै । परिणामस्वरूप जो पादान्त दस उपलब्ध दुए है उनमेसे कुछ पाठान्तर उनका प्रकार टिग्वलानेके लिए, दम यहा दे रद ६--




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