शरात्-साहित्य (दूसरा भाग) | Sharat Sahitya (Dusra Bhaag)

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Sharat Sahitya (Dusra Bhaag) by रामचन्द्र वर्मा - Ramchandra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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< स्वामी मैने कहा--यों ही मीगती हुई घर चली जाऊँगी । “ अच्छा, अगर यह आसाम-जैसी पहाड़ी बृष्टि हो तो क्या करो ! कहानियों सदास ही मुझे अच्छी लगती हैं | उसकी जरा-सी गन्ध मिलते ही मेरी दृष्टि तुर्त ही आकाहासे उतर कर नरेन्‍्द्रके मुखपर आ বাই । में पूछ बेटी --तो क्या उस देशमे वषोके समय कोई बाहर नहीं निकलता ! नरेन्द्र बोला--बिलकुछ नहीं | शरीरमें तीरकी तरह ल्मती है | ८८ अच्छा, क्या तुमने वहं बृष्टि देखी हे १ इस बार मेरे इस जले मुहसे “तुम बाहर निकल गया । अब सोचती हूँ कि उस समय यह जीभ भी साथ ही साथ मुहसे गरकर गिर जाती, तो बहुत अच्छा होता ! उसन कहा--अब इसके बाद अगर काह किसीकों “आप कहे, तो वह दूसरेका मरा-मुंह देखे | “६ कसम क्यो दिला दी ! में तो किसी तरह भी “ तुम न कहूँगी। ४“ अच्छी बात है; तो फिर तुम मेरा मरा-मुँह देखना । ` ८: कसम काई चीज नहीं । मे उसे नष्ट मानती | “ केस नहीं मानती, यह एक बार “ आप ” कहकर प्रमाणित कर दो | ` मन-ही-मन बिगडकर बोली --मुँह-जली ! अब वह तरा जटा तेज करटौ रहा ? मुँहसे तो किसी तरह “आप निकाल ही न सकी ! किन्तु दुर्गतिका यदि उस दिन यहीं अन्त हो जाता ! धीर धरि आकाशते पानी गिरना तौ ङु कम हुम, किन्तु प्रश्वीके जलने तो माना सारी दुनियाको घोलकर एकाकार कर दिया | सन्ध्या हो रही थी | थोड़ेस फूलोकी ऑचलमें बॉधकर कीचड़-भेरे बागके रास्तेसे मे चल पड़ी | नरेन्द्र बोला--चले, तुम्हे पहुँचा आऊँ | मेने कंदा-- नही । मनने मानो कह दिया कि यह अच्छा नहीं हो रहा है । पर भाग्यमे ख्खिको कैसे मिटा सकती थीं ! बागके किनोर आकर मारे भयके भरी अक्लन जवाब दे दिया | सारा नाछा जलसे भरा हुआ था, पार केसे होऊ ! नरेन्द्र मेरे साथ नहीं आया, वहीं खड़ा खड़ा देखता रहा । जब उसने मुझ




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