गीता प्रवचन | Geeta Pravachan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
29 MB
कुल पष्ठ :
284
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहला अध्यायं १५
भरका होता हं । श्रेयान् स्वधर्मो विगणः' इस गीता-वचनमें धमं
दाब्दका अथं हिदू-धमं, इस्लाम, ईसादे-धमं आदि जंसा नहीं है ।
प्रत्येक व्यक्ति का अपना भिन्न-भिन्न धमंह। मेरे सामने यहां जो
दोसौ व्यक्ति मौजूद हूं, उनके दो सौ धर्म हें । मेरा धर्म भी जो दस
, वषे पहर था वह आज नहीं हुं । आजका दस वषं बाद नहीं रहनेका ।
चिंतन और अनुभवसे जैसे-जैसे वृत्तियां बदलती जाती हें, वैसे-वेसे
पहलेंका धर्म छूटता जाता हं व॒ नवीन धर्म प्राप्त होता जाता है ।
हठ पकड़कर कुछ भी नहीं करना हू ।
दूसरेका धमं भरु ही श्रेष्ठ मालूम हो, उसे ग्रहण करनेमें मेरा
कल्याण नहीं हू । सूयंका प्रकाश मुझे प्रिय ह । उस प्रकारासे में
बढ़ता रहता हूं । सूय॑ मुझे वंदनीय भी है । परंतु इसलिए यदि में
पृथ्वीपर रहना छोड़कर उसके पास जाना चाहूंगा तो जलकर खाक
हो जाऊंगा । इसके विपरीत भले ही पथ्वीपर रहना विगण हो, सर्यंके
सामने पृथ्वी बिल्कुर तुच्छ हो, वह् स्वयं प्रकाशी न हो, तो भी जबतक
सूयेके तेजको सहन करनेका सामथ्यं मुझमें न आ जायगा तबतक
सूयं से दूर पृथ्वीपर रहकर हो मुझे अपना विकास कर छना होगा ।
मछलियोंको यदि कोई कह कि पानीसं दूध कोमती ह, तुम दूधमं रहने
चलो, तो क्या मछलियां उसे मजर करेगी ? मछलियां तो पानीमं
ही जी सकती हैं, दूधम मर जायगी ।
दूसरेका धर्म सरल मालम हो तो भी उसे ग्रहण नहीं करना हे ।
बहुत बार सरलता आभासमात्र ही होती हूं। घर-गृहस्थीमें बाल-
बच्चोंकी ठीक संभाल नहीं कीं जाती, इसलिए ऊंबकर यदि कोई
गृहस्थ संन्यास ले ले तो वह ढोंग होगा व भारी भी पड़ेगा । मौका
पाते ही उसकी वासनाएं जोर पकड़ेंगी । संसारका बोझ उठाया
नहीं जाता, इसलिए जंगलम जानेवाला पहर वहां छोटी-सी कुटिया
बनावेगा । फिर उसकी रक्षाके लिए बाड़ लगावेंगा । ऐसा करते-
करते वहांभी उसपर सवाया संसार खड़ा करने की नौबत आ जायगी ।
यदि सचमुच मनमें वेराग्यवृत्ति हो तो फिर संन्यास भी कौन कठिन
बात हे ? संन्यासको आसान बनानेवाला स्मृति-वचन तो हे ही ।
परंतु खास बात वृत्तिकी हं । जिसकी जो वास्तविक वृत्ति होगी
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