धरती के बेटी | Dharti Ki Beti

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Dharti Ki Beti by जी. जे. सोमयाजी - G. J Somayaji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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र्श्‌ कर ताली की जंजीर घुमाते हुए बोली चलो 1 पूरे तीन वर्ष बाद आज भाभी से मेंट हुई है किन्ठ रंजीत देख रहा है कि उससे तमिक भी परिवर्तन नहीं हुआ। वही हास-परिशसभरी . चंचल अखें वही सुकोमल शरीर वही स्नेह वहीं अपनत्व और वह्दी दूरी । इतने समीप होते हुए भी वह न जाने कितनी दूर है यही दूरत्व रंजीत को खलता है पीड़ा पहुँचाता है । किन्तु लाख प्रयत्न करने पर भी वह इस अलंघ्य दीवार को फॉद नहीं पाता | श्र वह रे आधी रात होने को आई । कमरे के एक कोने में चटाई पर बैठी मंजु अपनी छात्राओं की कापषियों से उलझ रही थी और समीप ही शैया पर लेटा रंजीत पुस्तक में आंखें गड़ाये पड़ा था | रह-रहकर उसकी दृष्टि कार्यरत भाभी की ओर भटक जाती | मंजु के झुके हुए माथे पर वां की एक लट झूल आई थी । रंजीत ने धीरे से हाथ बढ़ा उसे एक ओर उठा दिया | मंजु चॉक उठी । मुसकराकर बोली तुम सोये नहीं अभी तके क्या सोच रे हो ? तोच कहाँ रहा हूँ पढ़ रहा हूँ । उसने पुस्तक अपनी ओर खींचते हुए कहा | हाँ सो तो देख ही रही हूँ । उछटी किताब पढ़ने की कछा अब तुमसे सौलूँगी । हँसी दबाते हुए वह बोछी | रंजीत ने छनाकर देखा--सच ही पुस्तक उलटी रखी हुई थी । झट से सीधी करते हुए कह अच्छा माभी एक बात बताओगी हूँ ? अभरों पर आई हैँसी समेटते हुए बह बोली | हटात्‌ रंजीत शैया छोड़ उसके समीप झा बैठा | कलम छीनते हुए बोला आज सोओगी नहीं ? कब तक इन नाहायक लड़कियों की छायकी जॉंचती रहोगी ? नालावक हो होंगी ही माई--लूड़कियाँ जो ठहरीं |? हटो फिर मजाक अच्छा भाभी जब तुम्हारा विवाह होने वाला था तत्र तुम्हें कैसा लगा था गा था कि गले में पत्थर बाँध आँगन बाले कुएँ में कूद पढ़ें । फिर मजाक | ... पुम्हें हर बात मजाक ही सूझती है पेंदीस साल के बूढ़े से विवाह करने में ओर कैसा लगता अच्छा हटो काम करने दो मुझे रंजीत. अप्रतिभ हो उठा था | किन्तु न तो वह उठा ही और न उसने कलम ही छोड़ी । पूछा और 7. और कया यह भी कोई कहानी है | नही ठम कहो । नन्हे शिशु के समान हठ करता हुआ वह बौला | कया कह ? ग््त्यु की विभीषिका से भी वढ़कर कोई और भीषण यंत्रणा है ?




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