जय विजय | Jay-vijay
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
76
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं. काशीनाथ जैन - Pt. Kashinath Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहला परिच्छेद । ©
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सुन्दर पदार्थ खानेको देती दै । तीसरी मददीपणि, 'जोकि ` शल
अझि, सपे और भूत-प्रेतोंका भय छुड़ा देती है । -दे प्यारी ! ये
तीनों वस्तु इस - चिलोकीके सार-रत्त हैं ।”
इसके बाद यक्षने उन तीनों दिव्य पदार्थोके गुण. वतलाते
'हुए जय कुमारकों वे तीनों पदार्थ दे दिये। उन. चीज़ो'को
प्राप्त कर जयने सोचा; --“शाग्यवानको कोई वस्तु दुलेंभ नहीं
होती । अव क्या है १. अव तो हमें किसी घातका भयं नहीं
रहा । अवन भी ; निडर होकर सो रं । यहीं सोचकर
घह भी सोरहा।
जब थोडी रात बाक्रो रही, तव उसकी नींद श्वी ओरः
पिता जिस प्रकार:प्रे से पुत्रको. पुकारता 'है, उसी प्रकार उसने
भी विजयको पुकारकर' जगाया और उससे यक्षके किये हुए
आदर-भातिथ्यकी बात कह सुनायी । साथु, ही उसने. अपने
. छोटे भाईकों ही राज्य मिले, इस इच्छासे उसेवह महामन्त्र-देना
चाहा । यह ख़ुनकर विजयने बड़ी विनयके साथ. कपट-रहित
होकर कडा, “माई साष्टव ! आप ही राज्य करने एयॉम्स हैं
में तो लक्ष्मणकी तरह आपकी सेवा दो करने योयं प . डके
रहते छोटेको राज्य मिले, यह वात-तो अत्यन्त अचित द: इस | ५
'लिये आप ही इस 'मन्त्को जपिये |”
स तरष्टकी बात सुन, छोटे भाईको ही राज्य 'विलानेकी
इच्छा रखनेवाले जयकुमारने बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा,--'है
: भाई! यों तो हम दोनों ही राजाके बेंटे होनेके कारण : राज्य
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