जय विजय | Jay-vijay

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Jay-vijay by पं. काशीनाथ जैन - Pt. Kashinath Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला परिच्छेद । © ज ८०७ 9 ज 9 0००००७०२.० सुन्दर पदार्थ खानेको देती दै । तीसरी मददीपणि, 'जोकि ` शल अझि, सपे और भूत-प्रेतोंका भय छुड़ा देती है । -दे प्यारी ! ये तीनों वस्तु इस - चिलोकीके सार-रत्त हैं ।” इसके बाद यक्षने उन तीनों दिव्य पदार्थोके गुण. वतलाते 'हुए जय कुमारकों वे तीनों पदार्थ दे दिये। उन. चीज़ो'को प्राप्त कर जयने सोचा; --“शाग्यवानको कोई वस्तु दुलेंभ नहीं होती । अव क्या है १. अव तो हमें किसी घातका भयं नहीं रहा । अवन भी ; निडर होकर सो रं । यहीं सोचकर घह भी सोरहा। जब थोडी रात बाक्रो रही, तव उसकी नींद श्वी ओरः पिता जिस प्रकार:प्रे से पुत्रको. पुकारता 'है, उसी प्रकार उसने भी विजयको पुकारकर' जगाया और उससे यक्षके किये हुए आदर-भातिथ्यकी बात कह सुनायी । साथु, ही उसने. अपने . छोटे भाईकों ही राज्य मिले, इस इच्छासे उसेवह महामन्त्र-देना चाहा । यह ख़ुनकर विजयने बड़ी विनयके साथ. कपट-रहित होकर कडा, “माई साष्टव ! आप ही राज्य करने एयॉम्स हैं में तो लक्ष्मणकी तरह आपकी सेवा दो करने योयं प . डके रहते छोटेको राज्य मिले, यह वात-तो अत्यन्त अचित द: इस | ५ 'लिये आप ही इस 'मन्त्को जपिये |” स तरष्टकी बात सुन, छोटे भाईको ही राज्य 'विलानेकी इच्छा रखनेवाले जयकुमारने बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा,--'है : भाई! यों तो हम दोनों ही राजाके बेंटे होनेके कारण : राज्य




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