प्रवचन रत्नाकर | Pravachan Ratnakar

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Pravachan Ratnakar by नेमीचन्द पाटनी - Nemichand Paatni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समयसार गाथा २१५ उप्पण्णोदय भोगो वियोगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं। कंखामणागदस्स य उदयस्स ण कुव्वदे णाणी॥ २१५ ॥ उत्न्नोदयभोगो 'वियोगबुद्धधा तस्य स॒ नित्यम्‌। काक्षामनागतस्य च उदयस्य न करोति ज्ञानी ॥२१५॥ क्मोदियोपभोगस्तावत्‌ अतीतः प्रत्युत्यन्नोऽनागतौ वा स्यात्‌। तत्रातीतस्तावत्‌ अतीतत्वादेवं स न परिग्रहभावं बिभर्ति। अनागतस्तु आकक्ष्यमाण एव॒ परिग्रहभावं -निभृयात्‌। प्रत्युत्पत्रस्त॒ स किल रागबुद्धया प्रवर्तमान एव तथा स्यात्‌! न च प्रत्युत्पन्न: कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनो रागबुद्धया प्रवर्तमानो दृष्टः, ज्ञानिनोऽनज्ञानमयभावस्य राग- बुद्धेरभावात्‌। ः अब, यह कहते हैं कि ज्ञानी के “त्रिकाल सम्बन्धी मसि नही साप्रत उदय के भोग मे जु वियोगबुद्धी ज्ञानि के। अरु भावि कर्मविपाक की काक्षा नहीं ज्ञानी करे ॥२१५॥ गाथार्थ:-- (उत्यन्नोदयमोगः) जो उत्पन्न (वर्तमान काल के) उदय का मोग दहै (सः) वह्‌, (तस्य) ज्ञानी के (नित्यम्‌) सदा (वियोगबुद्धयए) ` वियोगबुद्धि से होता है च) भौर (अनागतस्य उदयस्य) आगामी उदय की (ज्ञानी) ज्ञानी (कक्षाम्‌) वांछा (न करोति) नही करता। टीकाः-~ कर्म के उदय का उपभोग तीन प्रकार का होता है- अतीत, वर्तमान ओर भविष्य काल का। इनमें से पहला, जो अतीत उपभोग है, वह अतीतता (व्यतीत हो चुका होने) के कारण ही परिग्रहमाव को धारण नहीं करता। भविष्य का उपभोग यदि वाखा _ में आता हो तो दी वह परिग्रहमाव को धारण करता है; और जो वर्तमान




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