दयानंद कुतर्क तिमिरतरणि | Dayanand Kutark Timirtarni

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Dayanand Kutark Timirtarni by विजयानंद सूरि-Vijayanand Suri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) ठुम्य नमास्त्रजगतः परमश्वराय, तुभ्यं नमो जिन भवाोदविशाष्णाय ॥३॥ ओर भी लाखों -श्छोक ईश्वरस्तुति के हैं, यादि जेनी ईश्वर को न मानते तो स्तुति किस की करते दै, अतः स्वामीजी का यद लिखना कि “ जनी ईश्वरं को नहीं मानते” उजाड में रोने समान दोने से कौन सुनता है । फिर. स्वामीजी लिखते हैं किं “ बोद्ध ओर जनी लोग सतभड़्ी और स्याद्वाद को मानते ६” यह भी स्वामीजी की अज्ञानता का सूचक है-क्योंकि वोद रोग सप्तभङ्गी ओर स्याद्वाद को नदीं मानते है, स्वामीजी का ठेख तव सख होसकता है, जव उनका कोई अलुयायी प्न भङ्धं ओर स्याद्वाद को मानना बोद्धम के किसी प्रमाणिक ग्रन्थ से सिद्ध करदे फिर स्वाषीजीने विना समने सोचे सप्तभगी के खडन का प्रयाप्तक्रियादै सोप्या निष्फल दीदे, केवल रंडी रोने से शकराचायै जसे जो “एके व्रह्म द्वितीयो नास्ति की राड मारते, ये, वह सप्रमेगी का यथाय स्वरूप न समञ्च सके, तो आपके स्वमी जी की क्या राक्ति जो इस अगाधतत्वस्वरूप को समद्र सके, खण्डन तो दूर रहा-यदि आपको वा अन्य किसी तच्ानुग्वेषो को नेनों की सप्तभङ्गी ओर स्यद्रादके स्वरूप का समझने की इच्छा हो तो श्रीविमलदासजी कृत सप्तभड़- तरङ्गिणी जो नवीन न्याय दै, पट्‌ छेवे, यदि संस्कृत न जानता दो तो न्यायांभोनिधि त्तपगच्छाचा्ं श्रीमद्रिजयानन्द सुरि पमिद्ध श्रीआत्माराम जी महाराजविरचिन तस्वनिर्णयपासाद ग्रन्थ का पटजिदात ( ३६ वां ) स्थम्भ पढ़कर देखले, इसमें शडराचार्य कृत सप्तभड्डी के खण्डन कां खण्डन सव्रि्तर है; उस से विदित होजविभा कि विचारे स्वामीजी का विना विचारा दी सवं [व




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