नारी जीवन | Nari Jivan

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Nari Jivan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दाम्पत्य 1 [ १२६ ठाकुर की वातें सुनकर ठकुरानी सोचने लगी-ये तो सारी वातें मुझ पर ही घटित होती है । फिर भी उसने कहा-चलो, मेरे भाग्य झच्छे थे, जो पाप उस नाग से बचकर श्रागए ॥ ठाकुर--ठकुरानी ! समभो । मैं उस नाग से बच निकला पर तुम सरीखो नागिन से वच निकलना बहुत कठिन है । ठकुरानी--दया मैं नागिन हू ? श्वरे बाप रे ! मैं नागिन हो गई ? भगवान्‌ जानता है । सब देव जानते हैं । मैंने कया किया जो मु नागिन बनाते हैं । ठाकुर--मैं नहीं बनाता, तुम स्वय वन रही हो ! मैं श्रपने मित्रो के सामने तुम्हारी तारीफ वघारता था,लेकिन सब व्यर्थे हृश्रा। ठकुरानी--तो बताते क्यो नही, मैंने ऐसा क्या किया है ? मैं श्रापके विना जी नहीं सकती शभ्रौर श्राप मुझे लाछन लगा रहे हैं । ठाक्र--चस रहने दो । म श्रव वह नही, जो तुम्हारी सीठी- मीठी बातो में प्रा जाक । तुम मुक्त मे कहा करती. थी-तुम्ह्वारे वियोग मे मुभे खाना नही माता श्रौर रात भर खाने का कचूमर निकाल दिया ! ठकूरानी कौ पोल खुल गई । सारांश यह कि ससार में इस ठकूरानी के समान पतिसे कपट करने वाली स्त्रिया भी हैं श्रौर पतिब्रताए भीर । पत्ति कफे प्रति निष्कपट भाव से श्रनन्य प्रम रखने वाली स्त्रियां भी मिल सकती हैं श्रौर मायाविनी भी मिल सकती हैं । ससार में भ्रच्छाई भी है श्रौर बुराई मी है । प्रश्न यह है कि स्त्रो को क्था ग्रहण करना चाहिये ? किसको भ्रपनाने से नारी-जीवन उन्नत भौर पवित्र बन सकता है ?




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