चार दीवारी | Char Divari

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Char Divari by मनमोहन मदारिया - Manmohan Madariya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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€ , मुसकसे घनिष्टता बढ़ाने की कोशिश करती हैं और यदि मैं उनका. घनिष्ट्ता को स्वीकार करने में असमथ हूँ तो इसमें मेरा क्या दोष लेकिन खमाज का न्याय अंधघा होता है । लखनऊ बड़ा उतना शहर है, पर मेरे लिए तो जनशून्य हो गया । इस विचिच-सी हास्यास्यद स्थिति से वचने के लिए मँ एक गल्ती कर बैठा । मेरी जाति के एक बुजुर्ग अक्सर मेरे पास श्राया कर्ते थे । पहले तो. मैं उनका उद्देश्य मालूम न कर सका था, लेकिन बाद में मालूम हुआ, ' उनकी कोई नातिन है जो सयानी हो चली थी। मुभे जिस दिन यह मालूम इु्रा, उस दिन से ही मैं उनसे कतराने लगा, पर वह भी जीवर' के श्रादमी थे | उन्होंने मेरा पीछा न छोड़ा । उन्हें शायद श्रपने ययलनों पर श्रपेक्षाकृत श्रघिक भरोसा था । दो-एक बार वह मुझे. अपने घर भी ले जा चुके थे और मैं उनकी उस नातिन को देख चुका था । शायद उसे यह बतलाया ज! चुका था कि मैं उसका भावी पति हूँ । इस कारण वह सुभे देखते ही शर्म से लाल हो जाती और लम्बा.सा घषर काट कर मेरी दृष्टि के परे हो जानें की चेष्टा करती लेकिन रमँ जानता था, जब तक मैं वहाँ रहता, बह द्वार के आट में खडी रहती श्रौर मेरे हर शब्द, मेरी हर हलचल को महसूस करती रहती | वह पन्‍्द्रद या सोलह वष की मैँकोल कद की गोरी-सी लड़की थी श्र फूदड़ व्यवहार के बावजूद भी सुन्दर कही ,जा सकती थी । दादाजी की हृष्टि में वह परम गु्णवत्ती कन्या थी, रामायण बाँच लेती थी}: उसे शायद मेरी ऊँची शिक्षा-दीक्षा का भी ज्ञान था श्र जिस दिन मेरा बहाँ जाने का कार्यक्रम होता, उस दिन वह विशेष रूप से भृङ्गार करने की चेष्या करती- महावर और बिंदियों से लेकर रूज' श्रौर: लिपस्टिक तक प्रसाधनों का बह उपयोग करती ! उस .साज-शरृज्धार में # चार दीवारी:




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