रंगभूमि | Rangabhumi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शेष रंगभूमभि इसी देसबेस में रात कट गई । अभी कर्मचारियों की नींद भी न खुली थी कि सोटरों की आवाज़ ने आगंतुकों की सूचना दीं । दारोगा, उोक्टर, वार, चोकीदार इड़बडाकर निकल पड़, पगली घंटी बजी, कदी मेदान मे निकल चाएु, उन्हें क़तारों सें खड़े होने का हुक्म दिया गया, श्रोर उसी क्षण सोफ़िया, मिस्टर क्ञाक ओर सरदार नीलकंठ जेल में दाख़िल हुए । सोफ़िया ने आते ही क्रेदियों पर निगाह डाली । उस दृष्टि में अ्रतीक्षा न थी, उत्सुकता न थी, भय था, विकलता थी; अशांति थी । जिस कांक्षा ने उसे बरसों रुखाया था; जो उसे यहीं तक खींच लाई थी, जिसके लिये उसने अपने प्रणद्धिय सिद्धांतों का बलिदान किया था, उसी को सामने देखकर वह इस समय कातर हो रही थी, जैसे कोई परदेसी बहुत दिनों के बाद अपने गाँव से आ- _ कर अंदर कदम रखते हुए डरता है कि कहीं कोई अशुभ समाचार कार्नो में न पड़ जाय । सहसा उसने विनय को सिर सुकाए खड़े देखा । हृदय में मेम का एक प्रचंड श्रावेग हुआ, नेत्रों से श्रैघेरा छा गया । घर वहीं था, पर उजड़ा इुश्र, घास-पात से ढका हुआ, पहचानना मुश्किल था । वह प्रसन्षमुख कहाँ था, जिस पर कवित्त की सरलता बलि होती थी । वह पुरुषार्थ का-सा विशाल वक्ष कहाँ था। सोही के सन में अनिवार्यं इच्छु! हुई कि विनय के पैसे पर गिर १, उसे श्रश्व-जख से धं, उसे गह्ध से लगा ¦ अकस्मात्‌ विनय- सिंद सूर्चिछित होकर गिर पड़े; एक आते-ध्वनि थी, जो एक क्षण तक अवाहित होकर शोकावेग से निश्शब्द हो गई ¦ सोम तुरत विनय के पास जा पहुँची। चारों तरक़ शोर मच गया । जेल का डॉक्टर दौड़ा । दारोगा पागलो की भांति उछल-कूद मचाने लगा--“अब नोकरों की द्वेरियत नदीं । मेम साहब पृद्धेगी, इसी हालत इतनी नाजुक क थी, तो इसे चिकित्सालय मे क्यो नहीं रक्खा १ बड़ सुखीदत में फसा ।




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