नागरीप्रचारिणी पत्रिका | Nagri Pracharni Patrika

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Nagri Pracharni Patrika  by कृष्णानंद - Krishnanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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परवा श्र्थात्‌ प्रशस्ति १६३ परंच ) यह नेख छाभी छप ही रहा था कि मुमे एक और ऐसे लंडित शिलालेख क छाप देखने को मिली जिसमें फिर प्रशस्ति के ही शर्थ में पूर्व शब्द का प्रयोग मिलता है । विशेषता यह्‌ है कि यश यह्‌ गयांश मे प्रयुक्त हुआ दे, जब कि ऊपर के सभी उदाहरण पथो मे मिलते हैं । पाठ यों है-- लिखिता चेयं पूवा श्रपराजितेन राजपुत्र-गोभटपादानुद्यातिन । भयात्‌ “भोर इख प्रशस्ति को राजयपुत्र गोभट के प्रसावानुजीकी अपराजित ने ( शिलापटू ) पर लिखा है ।” अपराजित नाम में किसी प्रकार का संदेह न दो, इसलिये प्रशस्तिकार ने पूरा और अपराजितेन में संधि नहदीं की । शिलाज्ञेख विक्रम संवत्‌ ५५७ का है । यह्‌ कहँ पर दै, इसका भमी तक पता नहीं ल्ग पाया। उनके कारनामो का षणंन रहता था । इस बात को ध्यान म रखते हए हम ष श्राशा कर सकते है करि बाणम ने उक्त वणन मे कुवैन्‌ कौतेनानि कै समनंतर मूल में श्रवश्य ही उल्लेखयन्‌ पूर्वाः या पेसा हौ कुठ पाट रक्ला होगा श्रौर तदनतर लेखयब्शासनानि कश होगा । किंच, यहाँ पर बाण-पयुकत पूर्वाः पद को दुरूह श्रथवा श्रप्सिद् सममकर बाद में प्रतिलिपि करनेवाले किसी सजन ने उसको स्पष्ट करने के लिये टिप्पणी के रूप में साथ ही उसका रथ दे दिया प्रशस्तीः । श्रागे के प्रतिलिपि करनेवालो ने श्रथवा श्राजकल कादंबरी का प्रकाशन करनेवाक्षों ने यह समभकर कि लेखयन्शातनानि में किसी न किसी प्रकार को लिखा- बट का भाव तो झा दी गया है, चलो इस उल्लेखयन्‌ ( या जो भी मूल पाठ में था ) पूर्वाः प्रशस्तीः को निकाल ही दो, इसे मुख्य पाठ से बहिष्कृत कर दिया तो भी उनका उपकार मानना चाहिए कि उन्होंने, टिप्पणी के रूप मे हौ सही, शस संदिग्ब एषाः अशस्त; फो पाठकों के सामने रख तो दिया है !




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