मुहावरा-मीमांसा | Muhawra-Mimansa

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Muhawra-Mimansa by ओंप्रकाश - Omprakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रामुप प्मुष्टावे इमारो बोलन्याल मैं दीवन और म्वूनि पा मयता षृ टोरोष्रेरा पनाया । व, मारं भोजन गौ पीष्टिष्ट भौर स्वास्प्यरर यनापया ने उप तन्यों ममान भिद देम जावन-त्व कदत १७५ मुद्दावरों में सपमुय एस हा विस प्रतिभा दाता है । उनम वितं भाषा , उनाभ्निथ म्वय लियता है, वतर दि शियस अथवा गामा तरद्‌ दृनरं साधना से सनकी कसा को पूरान फ्यावाय शाध्र दो निस्तेज लोरस और लिप्प्ाण हो लाता दै। सम्भवत इसालिए षेद किस भाषार्मे मुद्रायां फ विलदुन से दावे से विदही सुद्दादर। के समिधण फो हो ऋचठ' सनमना दै । मुदावरो कार्त मष्टा मुकर भला किमर मुंद जं पानो श्राया बौन उनको अर आावर्पित न ्ोगा। फिर इस पर ता व्यय तानि शरीर पुष्राषरो का यट श्रनूटाधन एक प्रद्वार से बदुत प्ले दा अपना रंग जसा सा धा । हमार मित्र प्राय हमें व्यग्य शीर सुदत्रो में बोलन का उलादना दिया करते थे । सन्‌ १८३६ इ० में तमू« ए० पास परन के परयाएु एव श्रद्ध य पशित बरावप्रसादती सिंध से मन उनका देन रख मं रिसर्च करने की श्पना दे द्वा भरट पी ना भाषा विनान की ओर मेरा विशेष मुकाव देखकर उद्दनि दिदीन्मुद्दावर। को उपत्ति श्रीर विकास का हप्टि से उपयी प्रदत्तियों वा विद विश्लेषण करसे हा मुम आइश दिया। रस और मेरी प्रानि तो थी है, अब प्रेस और याद भा दो यद और सन्‌ १८४० के आते आते काफो ब्यवस्यित्त रूप से मेरा काम चल पढ़ा । उद्देश्य बहुत दो बम एस दया होगे, तो तुरत रस चात से सद्टमत न हो जायें फि बुद्धि और शान के छेत्र में सगद्त समार का श्रपूवं फोप सद्दानू पा्वों से दो ।यरप रूप से सचित श्रीर सुरमित रदता दै. श्रीर सास सौर मदद प्रथों की मदती सहायता स उसका एक पीर से दूसरी पाटी तड़ श्रार्दनि प्रदान दुआ करता दे। में श्रपन रस प्र में रसस सर्वथा भिगन दृष्टि कोण पारकों के सामने रखकर श्पन इस क्यन की सयता को सममतर के लिए उद प्रेरित करूंगा कि सैसा प्राय श्रपिरीश लोग सोचत श्रीर ममकते द. कंबल पु्तरों अथवा उनमें सम्बध रसनिवाले मौखिक वत्तस्यों म हां नहीं वरन्‌ स्वतय रूप से व्यक्त दाद और बाक्यांशी ( सुद्दावरों ) मं भी बढुधा राजेनातिक सामाजिक श्रोरण्तदाप्िक ता धाथिर एवं सास्क्तिप सर्यो क॑ श्रमोम सागर गागर मं भर पड रहर आदम यं ब्यावदारिक श्राव्या श्रीर्‌ सोजों के लगे जोगे स तो बडी ्वपिक ताभदायर श्रीर पत्याणशारी उसके विचारों आद्शों शरीर श्रनुभूति-तैनों रा ब्योरा दो दै । कोइ भी इतिहास रतना मददत्तपुण श्रीर मनोददार! नहीं होता चितना मानव स्वभाव श्रौर उसरी मनोदत्तियों फा होता दै। सुद्दाबरों के श्रष्ययन से हर्म भले दी वद सद्दायर प्रणाली-मात्र क्यों न दो एक ऐसा पथ मिल पाता है जो इस इतिहास वी स्पष्ट व्याप्या करने श्रीर उसे बुद्ध श्रीर श्रपिक साफ तीर से सालकर रखम क॑ हमार उद्देश्य थी पूर्ति भे एक वद्धा मद्वपृणं स्थान रखता है। सनंप म॑ मुरावरों को ये पिसी भी भापा के क्यों न हों, १ रुम्वयू काई पु २९१




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