मरी - खाल की हाय | Mari Khal Ki Hay

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Mari Khal Ki Hay by आचार्य चतुरसेन शास्त्री - Acharya Chatursen Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) धाह के बल की इतनी प्रशंसा थी कि जिन्‌ से उपार्जित भोगों को संसार ने भोगा था वे ऐसी सूख गयी है! इन्दीं पैरो से त॒म ने जल थल और आकाश के द्वारा भूमन्डल की यात्रा की थी ? पर अब इन से उठ भी नहीं सकते । हाय ! यह कैसी दशा है ? प्यारे स्वदेश ; न रोझो तो करो भी क्या ! म्हारी वह्‌ मलक एक बार, सिफ़ं एक बार यदि किसी तरह दीख जाय तो उस पर्‌ भं सर्वस्व वार दूँगा । दिखाछओोगे क्या? जिन्होने तुम्हारा यौवन लृटा था वे कैसे निर्दयी थे ? ऐसी सरलता ! एेसी उदारता ! ऐसी महत्ता ! वीरता ! क्षमता | यह सब अलौकिके देख कर भी उनके हृदय में तुम्हारी भक्ति न हुई, उन्होंने हुन्हें न समका । पहले तो तुम्दारी सरलता श्र उदारता से लाभ उठाया, पीछे लूट मचाई । जब कुछ न रहा तों लात मार कर छोड़ दिया । गजुब किया ! सितम किया! उस समय में न था! हाय ! मैं न था !! यह सच है कि में तुच्छ हूँ, श्रशक्त हूँ, झबोध हूँ। पर उस समय में झपनी सब शक्तियों की बलि कर -देता । मैं श्रपनी श्रात्माकी बाजी लगा देता । सें झपने हृदय का खून बहा देता | में तुम्हारे बदले उनका अत्याचार सहता, इतनी धीरता से सहता कि वे घबरा जाते, थक जाते श्रत्याचार करना दी भूत जाते, उससे चन्द घृणा हो जाती ।




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