हिलोर | Hilor
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
150
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अपमान का भाग्य १५
जब मैं उधर जाया करता था, तब कभी-कभी एक तरुणी मी उधर
श्रा जाती थी । अनेक बार ऐसा हुआ कि वहद मेरे निकट से ही
टहलती हुई निकल गई | में अपने अध्ययन में इतना लीन
रहता फि सुमे उसके आने-जननि का प्रायः पता ही न चलता था ।
मे भुलक्कड भी परते दर्ज काहू अप जानते दी है । एक
दिन् एक वेच प्र एका पुस्तकं भूल गया । मुभ उस पुस्तक की याद्
तव् आद, जव स्कूल मे पटाने के लिए उसकी आवश्यकता पड़ी ।
सायंकाल में वहाँ पहुँच कर उसे खोजने लगा, मैंने इधर-उधर
बहुत छू ढ़ा, पर कहीं उसका पहा न चला | रंत में जब
निराश होकर वहां से चलने लगा, तब उसी क्षण मैने देला कि
एक रमणी मेरे सामने वही पुस्तक लिए खड़ी दै ।
सु अस्त-व्यस्त देखकर वह् बोली--च्ाप शायद् अपनी
पुस्तकं खोज रहे है । यह लीजिए । कल छाप इसे यहीं भूल गए
थे । कहीं किसी दूसरे के हाथ में पढ़कर गायब न हो जाय, यही
सोचकर में इसे लेती गई थी । आपको खोजने में कुछ कष्ट तो
हुआ ही होगा; पर मेस वैसा सोचना भी उचित ही था ।
मैने अव उसे ध्यान से देखा । यद्यपि उसकी अवस्था उस
समय पच्चीस से कम न होंगी, पर नारी-सौंदर्य की तेजोमयी
च्माभा से उसकी निखिल देह-णशि जगमगा रही थी । भोलेपत
का स्थान सलोनेपन ने ले लिया था । उसका श्ापाद-लु'हित केश-
पाश ऐसा सम्पोहक था कि उस पर से अपनी दृष्टि हटाने की
मुभे खध-बुध दी न रही । मेरी लालसा सहस्र धाराश्च से उसी
को आर प्रवाहित हो उठी । क्षण-भर बाद मुझे चेत हुआ । मैंने
कहा--झापकी इस अनुकंपा के लिये में झ्ापका बहुत-बहुद
कृतज्ञ हूँ। ं
और उसी दिन से मै.उस रमणी का उपासक हो गया |
फिर तो उत्तरोत्तर उससे घनिष्ठता बदृती ही गद । मै भातः
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