एक आत्मकथा | Ek Aatmakatha

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Ek Aatmakatha by देवीदत्त शुक्ल - Devidutt Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला अध्याय १९१ ही जानता था कि यह्‌ बहत कडा जुलाव है । मेने घर लाकर उसका एक बीज पीसकर एक कागज मे रखकर अपनी पगडी मे खोस लिया । में सबसे पहले स्कूल पहुंच जाता था । दूसरे दिन जब मेरे अध्यापक और उनके तीन सित्रों के लिए छोटे छोटे प्यालों मे क्हवा लाई गई तब प्रत्येक प्याला उनके बैठने की जगहों के सामने फशें पर रख दिया गया । वे उस समय बाहर एक धार्मिक मामले की बहस से मस्त थे । उन प्यालों के रखकर नौकर ख़बर देने के लिए बाहर चला गया । मैने पगड़ी से चह बुकनी तुरन्त निकाली और जाकर अध्यापकजी के प्याले मे उसे अंगुली से घोल दिया । इतने से एक लडका आ गया । प्याले के पास मुभे देखकर उसने मुमसे कहा-अरे चोरी करते हो । मन ही मन उसे शाप देते हए मेने कहा-देखते नदी हो । अन्धे हो? मे तो रूमाल से मक्खियाँ उड़ा रहा हूँ और तुम मुझे चोरी लगाते हो । मैने फिर कहा--झब तुम आओ और मक्खियाँ उडाओ । मेरी बारी हो गई। वह तुरन्त राजी हो गया। में अपनी जगह पर जाकर ध्यान से अपनी किताब पढ़ने लगा । अब मेरे अध्यापकजी और उनके मित्र बातचीत करते हुए भीतर आये और अपना अपना प्याला पीकर नित्य की भाँति हूँसी-दिल्लगी करते हुए हु.क्का पीने लगे। केरे एक घंटे के बाद उनके साथी चले गये और मेरे अध्यापकजी को तकलीफ मालूम होने लगी । मुझे बिलकुल स्पष्ट दिखाई दिया कि सेरी जादूभरी .खूराक उनपर अपना असर डाल रही है। उनका चेहरा पीला पड़ गया, उनकी तेज़ आँखें सुस्त हो गई' और उनको जैभाइयाँ आने लगी । उन्होंने लड़कों से कददा--जाओ, छुट्टी है। मेरी तबीयत बहुत खराब है। कल रात की दावत मे मैंने बहुत खा लिया था। जान पढ़ता है, एक न एक दिन ऐसी कोई दावत सेरी जान ही लेकर रहेगी ।




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