सौ अजान और एक सुजान | Sou Ajan Aur Ek Sujan

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Sou Ajan Aur Ek Sujan by दुलारेलाल - Dularelal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दूसरा प्रस्ताव १९ चिकनाते हुए फैशन और नज़ाकत के पीछे जनखा बन केवल अपने ाराम और भोग-विलास की फिक्र के सिवा ओर कुछ न करना इसे बिलकुल नापसंद था । न हरदम खाली सुभिरनी फेरना ही इसे भला लगता था, न यह आलें पहर अथं-पिशाचं वन केवल रुपया-ही-रपया अपने जीवन का सारांश मान बैठा था । वरन्‌ समय से धमे, अथे, काम, तीनो को पारी-पारी सेवता था । व्यासदेव के इस उपदेश कों अपने लिये इसने शिक्तागुरु मान रक्खा था- ' । घर्माथकामाः समतेव सेव्याः यस्त्वेकसेच्यः स नरो जघन्यः ।% बुद्धिमान्‌ ओर सभाचतुर एसा था कि जरा-से इशारे मे वात के ममे को पकड़ लेता था । केवल एक दी मेँ नितांत आसक्ति न रख धमे, अथे, काम, तीनो मेँ एक-सी निपुणता रखने से कभी किसी चालाक क जुल में यह नदीं राता था । संसार के सब काम करता' था, पर जिंतेद्रिय ऐसा था कि कच्ची तबियतवालों की भाँति लिप्त किसी में न होता था-- शरत्वा दृष्ट्वा च स्पष्ट्वा च शुक्त.वा घ्रात्वा च यो नरः ; यो न हप्यति ग्लायति वास विक्तेयो नितेन्दियः > ध्म, प्रथं श्रौर काम; इनका समान रूप से सेवन करना चाहिए जो मनुष्य एक ही का सेवन करता है, वह निंद्य हे । 1 जो मनुष्य खुनकर, देखकर, छूकर, खाकर और सूघकर न. प्रसन्न होता है न अप्रसन, उसे जितेद्रिय जानना चाहिए ।




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