जयपुर [कहानियाँ ] तत्त्वचर्चा १ | Jaipur (khaniya) Tatvacharcha 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादककी औओ रसे १७ पर द्रब्य-परसावोंसे भिन्न, अनन्य, नियत, अविज्ञेप और असयुक्त इस आत्माको अनुभव लिया उसने पूरे जैन श्चासनको जान लिया । उक्त प्रकारके मात्माको भनुमवना हौ समग्र जन शास्तनका जानना है यह आचार्यक्रा उपदेश हं जो कि मगवद्वाणोके रूपमे मान्य है । भौर यह बात ठीक मी हैं, क्योकि चक्रवर्तीके भोग और देवेन्द्र पदका प्राप्त करना यह धर्मका उद्देश्य नहीं है। सर्व प्रकारके कलक दयेपोे रहित विज्ञानघनस्वरूप निज भात्माकों प्राप्त करना ही घर्मका उद्देश्य है। यहीं परमागमस्वरूप वीतराग चाणीका सार हू । ४ कुछ शंकार्भोका निरसन ऐसी अध्यात्मविद्याप्रवण वीतराग वाणो परमागमका प्रधान अग अनादिकालसे बनी चली मारही है। हमारा परम सौभाग्य हैं कि वह वाणी इस कालमें पुन मुखरित हई है। सोनगढ़के अध्यात्म सन्त कानजी स्वासी तो उसके मुखरित होनेमें निमित्तमात्र हैं । वह उनकी वाणी नहीं है। वीतराग वाणी है, शुद्धात्माको भपनी पुकार है ! कुछ माइयोंका कहना है कि कानजी स्वामी एकान्तकी प्ररूपणा करते है । वे व्यवेहारको उष्ाते हँ । जव कि वस्तुस्थिति इससे सर्वथा भिन्न ह । निदचयघम भत्मघमं हैं, क्योकि वह परमात्मस्थरूप हैं। ऐसी भ्ररूपणा करते समय यदि यह कहा जाय कि यदि रसे मात्मघर्मको व्यवहारघमं स्पश नही करता है, वह्‌ उससे सर्वथा भिन्न ह तो एसी कथनीको व्यवहारधर्मका उडना कंसे मान लिया जाय भर्थातु नही माना जा सकता है । हाँ यदि वे यह कहने लगें कि व्यवहारसे देव-गुरु-शास्त्रकी पूजा- भक्ति करना, स्वाध्याय करना, जिन वाणीका सुनना-घुनाना, बणुव्रत-महान्रतका पालना इन सव क्रियामो के करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । मोक्षमार्गीके ये होती भो नहीं हैं। तव तो माना जाय कि वे व्यवहारको उड़ाते हैं । श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्टसे प्रकाशित प्रतिक्रमण पाठकों हमने देखा है । उसमें यह भी निर्देश किया गया हैं कि जिसने जीवन पयन्त के लिए मद्य-मास आदिका त्याग नहीं किया है वह नामका भी जैनी नद्दीं है। क्या यह व्यवस्थाकी प्ररूपणा नहीं है। क्या इससे हम यह नहीं समझ सकते कि वे व्यवहारको उडाना नहीं 'वाहते, बल्कि उसे प्राणवान्‌ घनानेमें ही लगे हुए हैं। प्राण- वानू व्यवहार ही मोक्षमार्गका सच्चा व्यवहार है। ऐसी परमागमकी भाज्ञा है। उनकी पूरी कथनी और करनी पर बारीकीसे ध्यान दिया जाय तो उससे यही सिद्ध होता है । उन्होंने अपनी पुरानी प्रतिष्ठाको छोड़कर दिंगम्बर परम्परा स्वीकार को भर इस परम्परामें आनेके बाद मपनेको अन्नती श्रावक घोषित किया । एकमात्र उनको यह्‌ घोपणा ही यह सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त हैं कि पे मोक्षमा्गके अनुरूप सम्यक्‌ व्यवहारको जोवनमें मीतरसे स्वीकार करते ह । यदि वे एकान्तके पक्ष- पाती होते तो कह सकते थे कि मैं “पर्यायदृष्टिसि भी न यृहस्थ हूँ और न मुनि हूं । मैं तो एकमात्र ज्ञायक- स्वरूप आत्मा हूँ ।' वे जिस स्थितिमें हैं उसे भीतरसे स्वीकार तो करते ही हैं और यह्‌ जोव अन्तरात्मा वन कर परमात्मा कंसे वनता है हस मागका म दर्शन कराते हैं । वास्तवमें देखा जाय तो जो भी ज्ञानी मोक्ष मागका उपदेश देता है वह दूसरेके लिए नही देता हैं । उसके भअन्तरात्माकी पुकार क्या है उसे ही वह भपने को सुनाता है । दूसरे भव्य प्राणी उसे सुनकर अपना भात्महितका कार्य साघ लें यह दुसरी वात है । इससे स्पष्ट विदित होता ह कि वे मनेकान्तके आदायको समझते है और जीवनमें उसे स्वीकार करते हैं । उनके विपयमें एक भमाक्षेप यह्‌ मी हं कि वे पुण्यका निपेघ करते हैं पर हमें उनपर किया गया यह डे स




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