स्थितप्रज्ञ-दर्शन | Sthitpragya -Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहुला व्याख्यान १ “स्थितप्रत् के लक्षणः गीता का अतिशय प्रसिद्ध विभाग है । अत्यन्त प्राचीन काल से लेकर आज तक इतनी प्रसिद्धि प्रायः गीता कै । किसी भी दूसरे विभाग को नहीं मिली १. गीता में स्थितप्रज्ञ के लक्षणों होगी । इसका कारण है । “स्थितप्रन' गीता का विशेष स्यान का आदर्श पुरुप-विशेष है । यह शब्द भी गीता का खास शब्द है । गीता के पूर्ववर्ती ग्रंथों में वह नहीं मिलता । गीता के वाद के ग्रंथों में वह खूब मिलता है । स्थितप्रज्ञ की तरह गीता में आदर्श पुरुपों के और भी वर्णन हैं । कर्मयोगी, जीवन्मुक्त, योगारूढ, भगवद्भक्त, गुणातीत, जाननिप्ठ इत्यादि बनेक नामों से अनेक आदशं चित्र भिन्न-भिन्त स्थलों पर आये हैं, परन्तु इन भादर्शों को औरों ने भी उपस्थित किया है । गीता में ये आदर्श भिन्न-भिन्न साधना के वर्णन के सिलसिले में उपस्थित किये गये हैं । वे स्थितप्रज्न से कोई भिन्त पुरुप है, एसी वात नहीं । “स्थितप्रज्न' के ही वे अनेक पहलू हैं । उन सबके वर्णन में स्थितप्रज्ञ के लक्षण गीता ने प्रायः कहीं-न-कहीं गूँथ ही दिये हैं । जेसे--पाँचवें अध्याय में संत्यासी अथवा योगी पुरुष के वर्णन में 'स्थिर-वुद्धि' शब्द प्रयुक्त हुआ है। वारहवें अध्याय में भक्त के लक्षणों की समाप्ति “स्थिरमति:” शब्द द्वारा की है। वृद्धि की स्थिरता हुए विना कोई भी आदर्श पूर्ण नहीं होता । इसीलिए यह प्रकरण इतना महत्त्वपूर्ण माना जाता दै । जीवन-मुक्ति की सिद्धि के लिए सबूत पेश करते हुए भाष्यकार ने स्थितप्रज्न के लक्षण उपस्थित किये हैं । अन्तिम आदर्श का, ध्येयमूति का, साघक की दृष्टि से इतना सविस्तर विवेचन यह एक ही है । १. शंकराचायं ।




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