कन्नडप्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची | Kannadprantiya Taadpatriy Granthsuchi

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Kannadprantiya Taadpatriy Granthsuchi by के० भुजबली शास्त्री - K. Bhujwali Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्थावधा ११ पमं चरिड' भादि श्रन्थोकी जैन महाराष्टरी भाषा प्रथम युयमे, दिगम्बरं अनं मन्थोकी सौरसेभी भौर परयत्ती कारके इवेताम्वर ग्रन्थोकी जैन महाराष्ट्री भाषा मध्य युगमें, भिन्न-भिन्न प्रदेशोकी परवर्तिकालीन अपभ्रद् भाषाएँ शेष युगमे ली गथी हूं । प्राकृतके निम्न-लिखित दस मेद माने गये हैं । (१) पाछि ( २) पैदयाची (३ ) चूलिका-पैदाची (४) अ्े- मागघी (५) जैन महाराष्ट्री (६) अद्षोकलिपि (७) सौरसेनी (८) मागधघी (९) महाराष्ट्री (१०] अपश्रद्य । इनमेंसे प्रत्येकका परिचय देनेसे इसका कलेवर वढ जायगा । इसलिये यहाँ पर जैन वाडमयसे सम्बन्ध रखनेवाछी अर्धमागधी, जन महाराष्ट्री, जैन सौरसेनी एव अपगभ्रश् भापाभओका ही सक्षिप्त परिचय दिया जाता है । (१) अर्घमागवी-दिगम्वर और इवेताम्वर दोनोका सिद्धान्त है कि भगवानु महावीर अपना धर्मोपदेश अर्वेमागघी भाषामें ही देते रहे और उनका यह उपदेश दीघेंकाल तक शिष्यपरम्परासे कण्ठपाठ-द्वारा ही संरक्षित रहा । भगवान्‌ महावीरके निर्वाणसे लगभग दो सी वर्षके वाद सन्नाट्‌ चन्द्रयुप्तके शासनकालमें मगघ देदामें वारह वर्षोका भीषण दुशिक्ष पडा था । उस समय भद्रवाहु स्वामीके नेतृत्वमें एक महान्‌ जैन मुनिसघको अपने चारित्रकी रक्षाके लिये ही वहु टूरवर्ती दक्षिण देशमें आना पडा । क्योकि इस दुर्बह मुनिचारित्रकी रक्षाके लिये यह दक्षिण देव बहुत उपयुक्त रहा है । उधरका अवशिष्ट मुनिसघ उस मीपण दुरमिक्ष कालमें सुत्र-अन्योका परिश्नीलन भलीभाँति न कर सकनेके कारण उन सुत्रोको भूलसा गया था । इसके फलस्वरूप उक्त दुर्भिक्षके वाद पाटलीपुत्र (पटना) में मगघ-प्रदेशस्थ इस अवदिष्ट मुनि-सघने एकत्रित होकर जिस जिस साधूको जिस जिस अग प्रन्यका जी जो अदा जिस जिस रूपमें याद रह गया था उस उस साधुसे उस उस अग ग्रन्थके उस उस अशको उस उस रूपमें प्राप्त कर ग्यारह अगोका सकछन किया। पर दवेतावर ग्रत्योके कथनानुसार ही ये अग ग्रन्थ महावीर-निर्वाणके वाद ९८०, ई० सनु ४५४ में वल्ठभी (वतमान काठ्यावाड) से श्री देवद्धिगि क्षमा-भमण के द्वारा वर्तमान आकारमें लिपिवद्ध हुए थे । एक वात यह है कि उपर्युक्त पाटलीपुत्रके सघनें जिन ग्यारह अगोका सकलन किया था उन अगोको अपूर्ण एव विकृत मान कर दक्षिण-प्रवासी सुनिसघने स्वीकार नहीं किया । पर साथ ही साथ उस सघने स्वय भी उन पूवं अग ग्रन्थोका सकटन करनेकी चेष्टा भी नहीं की । इसका परिणाम यह हुआ कि उस सघको इन अग ग्रथोसे सदाके छिये हाथ वो बैठना पडा । कुछ विद्वानोका अनुमान है कि उत्तरका मुनिसघ जब अगगत अचेलक आदि शब्दोका मर्थ दुभिक्षके उपरात “ईपच्चेकक' (थोडा कपडा) आदि करने रगा तव अपने मूल सिद्धान्तमें धवका पहुँचता देख कर दक्षिणका मुनिसघ सकलित उन ग्रन्थोको स्वीकार करनेको सहमत नह्दी हुआ । अगर वास्तवमें यह वात सच्ची है तो मानना पडेगा कि उस दक्षिणके मुनितघने भारी भूल की । वल्कि बचे-खुचे अपने उन प्रन्थोको सर्वथा परित्याग न कर अपने मूर सिद्धान्तके अनुकर ही वह्‌ उसकी व्याख्या करता। माप हिनदुमोकि सर्वं प्राचीन एव प्रविच्र ग्रन्थ वेद कोही लीजिये । सुप्राचीन कालसे आज तक इसकी अनेक टीकाएँ लिखी गयीं । साथद्दी साथ इन टीकामोमें मत भेदकी भी कमी नही है, फिर भी मौलिक भें को मानने वाली दिंदू जातिने मतभेदसे घवडा कर वेदका परित्याग नही किया । अस्तु, यहाँ पर प्रायः यह्‌ स्पष्ट करनेकी जरत नही ह कि दक्षिणका बही सघ पी दिगम्बरके नामसे भौर उत्तरका सघ धवेताम्वरके नामतसे प्रसिद्ध हुए । ्रो० ज॑कोनी आदि विद्रानोकि मतसे दवेतावर सूत्रग्रन्योमे महार ष्ट्री श्रङृतका गहरा भमाव पडा है। अर्मागधी गौर मार प्राकृत वास्तवमें एक ही चीज है । जैकोवी प्रभूति कुछ पछड़ितोंने इन्हें जो भिन्न-भिन्न मान छिया है, यह उनका श्रममात्र हं । साय ही साथ यष भी जान लेना मावश्यक है. कि अर्घमागधी, महाराष्ट्री प्राकृतसे पृथक्‌ एव प्राचीन ह । प्रो० जेकोबीने प्राचीन जैन श्ुघोकी भाषाको प्राचीन महाराष्टी कह कर जो इसका जन महाराष्ट्री नाम दिया है-इनके इस सिद्धान्तका डां पिच (21501061) ने अपने राङ्क व्याकरणम सयुक्तिक खण्डन किया ह । नाटकीय अर्घमागधी और जैन सूत्रोकी अ्ंमागघी एक नही हं । माकण्डय आदि आकृत व॑या- करणेति अर्धमागधीका जो रक्षण दिया हं वह॒ नाटकीय अर्व॑मागवीका हैन कि जन सू्रोकी अर्धमागधीका । भष नि दिल है मनन 1 देखें-स्पविरावली-रित,' सगे & ।




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