श्रमण | Shraman
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
219
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
श्री शिवप्रसाद - Shree Shivprasad
No Information available about श्री शिवप्रसाद - Shree Shivprasad
सागरमल जैन - Sagarmal Jain
No Information available about सागरमल जैन - Sagarmal Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)११
हाल ही में श्री लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पन्न द्वितीय आचार्य
कुन्दकुन्दस्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत भाषाशास््री एवं दार्शनिक विचारक प्रो
नथमलजी टॉँटिया ने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि “श्रमण-साहित्य का प्राचीन-रूप,
चाहे वे बौद्धों के त्रिपिटक आदि हों, श्वेताम्बरों के 'आचाराज़सूत्र', 'दशवैकालिकसूत्र”
आदि हों अथवा दिगम्बरों के 'बट्खण्डागमसूत्र', 'समयसार' आदि हों, सभी शौरसेनी
प्राकृत में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद में श्रीलंका
में एक बृहत्संगीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध-साहित्य का मागधीकरण
किया ओर प्राचीन शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध- साहित्य के ग्रन्थो को अग्निसात कर दिया।
इसी प्रकार शेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही था, जिसका
रूप क्रमशः अर्धमागधी मे बदल गया। यदि हम वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य
को ही मूल श्वेताम्बर आगम साहित्य मानने पर जोर देगे, तो इस अर्धमागधी भाषा का
आज से पन्द्रह सौ वर्षं के पहले अस्तित्व ही नहीं होने से इन स्थिति मेँ हमे अपने
आगम साहित्य को भी ५०० ई० से परवतीं मानना पड़ेगा!”
“उन्होने स्पष्ट किया कि आज भी 'आचाराङ्गसुत्र' आदि की प्राचीन प्रतियों में
शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जबकि नये प्रकाशित संस्करणों मेँ उन शब्दों
का अर्धमागधीकरण हो गया है। उन्होने कहा कि पक्षव्यामोह के कारण एेसे परिवर्तनं
से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूल रूप खो रहे है। उन्होने स्पष्ट शब्दों मे कहा कि
दिगम्बर जैन साहित्य मे ही शौरसेनी भावा के प्राचीनरूप सुरक्षित एवं उपलब्ध है।'
निस्सन्देह प्रो° रौँटिया जैन ओर बौद्ध-विद्याओं के वरिठतम विद्वानों मे एक
रहे है ओर उनके कथन का कोई अर्थं ओर आधार भी होगा; किन्तु ये कथन उनके
अपने है या उन्हे अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है, यह
एक विवादास्पद प्रश्न है? क्योंकि एक ओर तुलसीप्रज्ञा के सम्पादक का कहना है
कि टॉटियाजी ने इसका खण्डन किया है। वे तुलसीप्रज्ञा (अप्रैल-जून, १९९३, खण्ड
१९, अंक १) मे लिखते है कि “ई ° नथमल टौटिवा ने दिल्ली की एक पत्रिका
मे छपे ओर उनके नाम से प्रयारित इस कथन का खण्डन किया है कि
महावीरवाणी शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि
आचाराङ्ग, उचराध्ययन, सूत्रकृताङ्ग ओर दशवैकालिक मे अर्धमागधी भाषा का
उत्कृष्ट रूप है।''
दूसरी ओर प्राकृतथिद्ञा के सम्पादक डॉ० सुदीपजी का कथन है कि उनके
व्याख्यान की टेप हमारे पास उपलब्ध है और हमने उनके विचारों की अविकल रूप
से यथावत् प्रस्तुती की है। मात्र इतना ही नहीं डॉ० सुदीपजी का तो यह भी कथन
है कि तुलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी वे टॉटियाजी से मिले हैं और टॉटियाजी ने
उन्हें कहा है कि वे अपने कथन पर आज भी दृढ़ हैं। टॉटियाजी के इस कथन को
User Reviews
No Reviews | Add Yours...