उज्जवल-प्रवचन | Ujjval Parvachan

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Ujjval Parvachan by रत्नकुमार जैन - Ratnkumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ उञञ्वंल- प्रवचन महात्माजीं ने कशष-- “ जत्र तकं यह दातुन चले तत्र तक उतका उपयोग न करना उस पेड़ का अपराघ करना है! इर्ते यह मलीर्भति जाना जा सकता दै कि मद्दात्माजी की व्यक्तिगत अदिसाः मानब-मयौदित ही नहीं, वह सूक्ष्म जीवों तक भी व्याप्त थी । गीता और अहिंता : एक बार गांधीजी से मिलना हुआ था तब एछा या [ॐ गीता में तो श्रीकृष्ण ने युद्ध का विधान किया दै, तब फिर आष्टा क्यो कही गहं दै १ इका उत्तर देते हुए मार्षीजी ने कहा था--“ गीता के अन्त में तो अषिठाकाष्टी विधानकरिया गयाडहै। हषा ते जो सिद्धि मिलती है वह ऊप शती है--दिखावरी होती दै । शची लिद्धितो अखिषेही प्राप्त की जा सकती है |?” आज से पच्चीस सी वर्ष पूब॑ जो बात भगवान्‌ ने कद्दी थी वद्द आज भी उतनी ही उपयोगी दै, यह साप, जाहिर है | परिप्रह पाप का सूल हे : दूबरी बात उन्होंने अपरिम्रह्द की कही । अदिंशा या सत्य तों पर्या- यवाची दब्द हैं, एक दी सिक्के के दो पहलू हैं । परिग्रह दिंला से दी बढ़ता है । उछके मूल में अदिंसा नहीं दोती । कई मनुष्य यदद कहते हैं कि हम न्याय ओर प्रामाणिकता ते वैसा इक्या करते ई, इसमे बुरा क्या करते हैं ! लेकिन वे यह नहीं जानते हैं कि भगवान्‌ ने तो साफ कहा दे कि परिग्रह-संग्रइ रखना ही पाप है । फिर चाहे वह न्याय से किया गया हो या नीति से किया गया हो। परिम्रह में सिवा पाप के और कुछ दोता दी नक्ष । क्योंकि पाप का मूल दही परिग्रह ३। परिमही पारमिक नही ह्येता : बारईबिरु मे एक उदाहरण है । ५० द्यु के पाठ एक घनवान युव आया और बोला : ' मुझे कल्याण का मार्ग बताइये | इंशु ने कहा: त्‌ इंश्वर




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