अहिंसा विवेक | Ahinsa Vivek

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Ahinsa Vivek by मुनि श्री नगराज जी - Muni Shri Nagraj Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| अहिसा विवेक करो, उन पर प्रहार मत करो, यही धर्म शुद्ध है, नित्य है प्रौर शाइवत है । वतमान कातचक्रार्धं के प्रथम तीन अध्यायो आरो) मे इस कर्म भूमि पर मौगलिक सम्यता रही। उस समय सभी लोग भाई-बहिन के युगल में पैदा होते ध्रौर तारुण्य पाकर वही युगल दम्पति रूप में बन जाता । कल्पवक्ष ही उनकी इच्छाएं पूरी करते । वे रोगी नहीं होगे । उनका मारणात्तिक रोग एक छींक व एक जम्भाई होता 1 वे बहुत सुन्दर होते । कपाय-चतुष्क की श्रल्पता में उनका प्राकृतिक जीवन बहुत सुखी होता । उनमें सहज संबोध होता, पर जीवन-व्यवहार में उनके न तो धर्मे-विवक्षा होती श्र न धर्म-शुश्रूषा । तात्पयं उन तरुवासी युगलों के जीवन में न तो हिसा की प्रवलता थी श्रौरन श्रिता का विहित विकास ।* मानव-सम्यता का उदय इस कालचक्रा्घ के तीसरे श्रध्याय के भ्रन्त में यौगलिक सम्यता समाप्त हुई भ्रौर मानव-सभ्यता का उदय ह्र) प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभनाथ प्रमु ने श्रपने शासकोय जीवनसे लोगो वो कमे वः प्रशिक्षण दिया, जो कि इस मानव-सम्यतां के प्रथम राजा थे। तभी मे कूपि, वाणिज्य, झात्र तथा शिल्प प्रमृति कर्मों का प्रारम्भ समाज में हुमा । प्रादिनाथ प्रमु ने ही श्रपने व्येष्ठ पुत्र भरत को बहत्तर कलाश्रों का, द्वितीय पुत्र बाहुबली को शरीर-लक्षणों का, पुत्री सुन्दरी को गणित का तथा त्राह्मी को स्व प्रथम लिपि का ज्ञान दिया ।* कहा जाता है, वही ब्राह्मी लिपि श्रब तक प्रचलित है त्रीर नाना लिपियोंके रूप्‌ में उसका विकास हुआ है । ५ ~~ ~ -न १ सभ्बे पाणा, सव्वे भूया, सभ्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतथ्वा, त श्रज्जावेयख्वा, न परिधेतथ्वा, न परियवेयव्वा, म उह्‌रेयग्वा । -झाचा० १, ४. १ २. जम्बूदीपत्रशप्ति, कालाधिकार तथा त्रिदष्टिशलाका पुरुष० पं १ सर्ग २ इलोक १०९ से १२८ र क. त्रिषष्टिशालाकापुरषचरि त्र पवं १ समे २ इलोक. ९२५ ते ६७० ख. तेब्रट्टि पुव्बसप सहस्साइं महाराय घासमज्ये वसइ, तेषडट्टि पव्वसय सहस्साइं सहाराय बासमजभ बसमाणे सेहादृश्राश्रो गणिघ्रष्पहाणाभो सरणस्छ पञ्जवत्ताणाभ्रो बावत्तरियकलाश्रो चोसटिठं महिला गणे, सिष्पसय॑च कम्माणे तिष्णिवि पयाहग्राए उवदिसइ । ः जम्बद्नोपप्रशप्ति, काला धिकार




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