विजयसेठ विजयासेठानी | Vijay Seth Vijaya Sethani
श्रेणी : कहानियाँ / Stories, जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
66
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं. काशीनाथ जैन - Pt. Kashinath Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दूसरा परिच्छेद 1 १५
तरहदकी भाशाएँ उद्य हो रही हैं और वे अपने मावी जीवनकी
कल्पनासो कर रहै दै । आविर मन्र-पाटके साथ-साथ कल्या-
करा दाथ स्वामीको पकड़ा दिया गया-मानों माँ की योदसे
अलग होकर कन्या आजसे स्वामीकेद्दो हाथमें सॉप दी गयी ।
आज इन दो जीदोंकी जीवन-यात्राका मानों आरम्धर हुआ । इस
याताके रास्तेमें काँटे-कप्टक,,नदों-समुद्र, घाटी और पर्वत, सभी
कुछ मिल सकते हैं। उन सवको एकह्ी साथ पारकर एकह
साध डूबने, मरने या पार-उतरनेका उन्होंने प्रण लिया है ।
' गुरु महाराजने कददा,--“भाइयो ! देखो । दाथमें हाथ लेनेका
अधिकार दासीका नहीं; मिंत्रका है, इसलिये स्त्रोको दासी नहीं,
चस्कि मित्र समकना चादिये । जीचनकी इस दुर्गम धाटोमें
यह दाथ शद्खमोका नाश ओर विरोध भावनाका संहार करनेवाला
हे । इसच्िये धत्येक मनुष्यको यह सोचना चादिये कि एकक
साथ दोनोंके हाथमें विजय-लक्ष्मी मिलेगी ओर उनके हाथमे
नवीन-प्रकाश होगा; पर जो इसके विपरीत सोचते हैं, उनके लिये
शस मणिका वेज अन्धकास्मय हो जाता है। यरी भाजकै इस
माङ्कलिक रसंगका रहस्य है 1”
इसके चाद च्यादकी ओर-मौर रतिर्या पूरी की गयी । अन-
न्नर चेटीकी विंदाईका अवसर आ पचा । उस समय माताने
ससुराल जाती हुई कन्याकों इस प्रकार उपदेश देना आरम्भ
किया,--“वेडी विजया ! आजसे तू मेरी न रदकर सास-सखुर-
की होरई । अव वेदी तेरे माँ-चाप हुए । तू उनपर पूरी श्रद्धा-
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