विजयसेठ विजयासेठानी | Vijay Seth Vijaya Sethani

Vijay Seth Vijaya Sethani by पं. काशीनाथ जैन - Pt. Kashinath Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दूसरा परिच्छेद 1 १५ तरहदकी भाशाएँ उद्य हो रही हैं और वे अपने मावी जीवनकी कल्पनासो कर रहै दै । आविर मन्र-पाटके साथ-साथ कल्या- करा दाथ स्वामीको पकड़ा दिया गया-मानों माँ की योदसे अलग होकर कन्या आजसे स्वामीकेद्दो हाथमें सॉप दी गयी । आज इन दो जीदोंकी जीवन-यात्राका मानों आरम्धर हुआ । इस याताके रास्तेमें काँटे-कप्टक,,नदों-समुद्र, घाटी और पर्वत, सभी कुछ मिल सकते हैं। उन सवको एकह्ी साथ पारकर एकह साध डूबने, मरने या पार-उतरनेका उन्होंने प्रण लिया है । ' गुरु महाराजने कददा,--“भाइयो ! देखो । दाथमें हाथ लेनेका अधिकार दासीका नहीं; मिंत्रका है, इसलिये स्त्रोको दासी नहीं, चस्कि मित्र समकना चादिये । जीचनकी इस दुर्गम धाटोमें यह दाथ शद्खमोका नाश ओर विरोध भावनाका संहार करनेवाला हे । इसच्िये धत्येक मनुष्यको यह सोचना चादिये कि एकक साथ दोनोंके हाथमें विजय-लक्ष्मी मिलेगी ओर उनके हाथमे नवीन-प्रकाश होगा; पर जो इसके विपरीत सोचते हैं, उनके लिये शस मणिका वेज अन्धकास्मय हो जाता है। यरी भाजकै इस माङ्कलिक रसंगका रहस्य है 1” इसके चाद च्यादकी ओर-मौर रतिर्या पूरी की गयी । अन- न्नर चेटीकी विंदाईका अवसर आ पचा । उस समय माताने ससुराल जाती हुई कन्याकों इस प्रकार उपदेश देना आरम्भ किया,--“वेडी विजया ! आजसे तू मेरी न रदकर सास-सखुर- की होरई । अव वेदी तेरे माँ-चाप हुए । तू उनपर पूरी श्रद्धा-




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