कलावती | Kalawati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला परिच्छेद । फ सारं सिपादी भीर स्वयं राजा विजय चार्यो भोर घूम रहे थे । कःमरको देते दी सारी सेना कमार जयसेनकी जय, क उठी । उसी समय कमार जयसेनने मेरे धोडेसे नीचे उतरकर अपने पिताके चरर्णोपर गिरकर नमस्कारः किया । पिताके पूछने पर उसने अपनी सारी कहानी खुनाते हुए कह्दा;-“पिंताजी | धह दुए घोड़ा सुकके उस चिकट जंगलमें चददका ले गया। ला- चार मने अथकर लगाम छोड दी। तथ वह खडा दो गया भौर देखते-देखते गिरकर मर गया । उसी समय मुर्क भी मुर्च्छा आ गयी । मैं इसी हालतमें पड़ा था, कि इन मेरे धर्म-वन्धुने माकर मेरी जान यचायौ । यद कद कुमारने मेरी ओर उंगलीसे इशारा किया । यद्‌ घुने टी राज्ञा चिजयने मुे घोड़ेसे नीचे उतर फ्रर गढेले लगा लिया मौर सुर अपने वड़े लड्फेके समान माना । मैरे साथवालोँकी र्षा करनेका भार अपने लिपा- हियोंको देकर राजा घिजय मुझे पहले देवशालपुरकी ओर ले गये । चहाँ मैं बहुत दिनॉतक रहा । वद के लोगोंने मेरा मन देखा मोद लिया, कि भँ सतो भपने माता-पिता भौर माक-भूमि की व्रात ही भूछ गया । सच ई, दस संसारे ऐसे स्नेदी हृदय यढ़ी कठिनाईसे मिलते हैं; जो थोड़े दिन साथ रदनेसे भी मनको मुट्ठीमें कर लेते हैं। राज्ञा विजयकी एक लड़की है, जो कुमार जयसेनसे छोटी दै। चदद वड़ी शुभलक्षणा है। उसका कप तिलीत्माफे समान, आँखें मनोदर और गुण अनेक है । व सच कलाओोंमें निषुण है। इसी लिये उसका कछावती नाम




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