श्वेताम्बर तेरह-पन्थ | Shwetambar Terah-Panth
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
194
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ७. )
रक्ता के छिए अनेकों स्थावर प्राणियों की दिंसा क्यों की' जावे !?
जेसे-किखी को भोजन दिया या पानी पिलाया, तब रक्ा तो एक
, अष की हुई, परन्तु इस कायं मे श्रसंख्य भर अनन्त स्थावर
नीवों का संहार दो जाता है, वह पाप उख जीव-रक्ता करने वाले को
-होणा | इतना ही नीं किन्तु जो जीव बचा है, उसके जीवन भर
खाते पीने भथवा न्य कामों में जो दिंसा न्रस-त्थावर जीवों की
होगी, बह र्दा भीखी को छगेगो, जिसने उसको मरने से
बचाया दे |
दुसरा सिद्धान्त यदद दै कि--जो जीव मरता है अथवा.कट्ट
पारहाहै बह अपने पूर्व संचित कर्मा का फछ भोग रहा दै ।
उसको भरने से बचाना अथवा उसको सहायता करके कष्ट-मुक्त
करना, अपने खुद पर का वदद कम-ऋण 'चुकाने से उसको, वंचित
रखना है, -जिसे बह मरनेया कष्ट सहने के रूप मँ भोगकर
युका रा था। .
तीसरी मान्यता यह है कि--पाघु के सिवाय संसार के
समस्त श्राणी कुपात्र हैं । कछुपात्र को बचाना, कुपात्र को दान देना,
-कुपात्र की सेबा-सुश्नघा करना, सब पाप हैं ।
इन्हीं दढीछों ( मान्यताभओं ) के आधार पर तेरद-पन्थी -छोग
दया 'और दान को पाप बताते हैं; -और इन्दीं सिद्धान्तों की
डढ़ता के ढिए वे कहते हैं कि--
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