चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य | Chandragupt Vikramaditya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
246
श्रेणी :
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No Information available about गंगाप्रसाद मेहता : Gangaprasad : Mehata
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ९ )
दुुवुर्वाजिनः स्कन्धालिमङकुमकेसरान् ॥
तत्र॒ हणावरोधानां भर्तृषु व्यक्तविक्रमम् ।
काम्बोजा; समरे सोष्ु॑तस्य वीर्यम नीहवराः ॥
[ रषु, ४, ६०६९ ]
कालिदास के पूर्वाद्धत विजय-वृत्तांत में उस के समय की घटनानां
की प्रतिध्वनि स्पष्ट प्रतीत होती है । 'पारसीक' 'और “वाह्लीक' में राज्य
करने वाले शक “शाददंशाह” जुदे-जुदे न थे, एक ही थे । उस के उत्तर में
हण लोग श्राक्रमण कर ई० सन् की चौथी सदी के अंतिम चरण में
धवं, ( श्राक्सस ) नदी के किनारे आ बसे थे । भारत ॐ सीमाप्रातों की
ऐसी ही ऐतिहासिक परिस्थिति में दिल्ली के लॉोह-स्तंभ के राजा चंद्र ने
सिधु के सात मुखो को लँध कर समर मे वाहिका को जीता था-^तीत्वां
सप्रमुखानि येन समरे सिंधोर्जिता वाहिकः । पुरातत्वज्ञ जोन एलन की
व्याख्यानुसार सिधु के सात मुहानों को पार कर राजा चंद्र बल्ख
( बाहविक ) तक नदीं पर्हुच सका होगा किंतु उस ने कहीं बलोचिस्तान के
ही श्ासपास भारत पर हमले करने वाले किन्हीं विदेशि्यों को परास्त
किया होगा । परंतु एलन महाशय ने उक्त व्याख्या करते हए यह शंका
नहीं उठाई कि सिंधु के खात ही मुहन क्यों के गए, अयिक क्यों नहीं ?
“मुखः शब्द का प्रयोग संसृत में हार के अथं में होता है- “मुखं तु वदने
मख्यारंभे द्ाराभ्युपाययोरिति यादवः ।' सिंघ के सात दारो को--उद्रमां
को--लाँघ कर चंद्र बल्ख तक पहुँचा था । श्रीयुत काशीप्रसाद जायसवाल
का उक्त कथन युक्तिसंगत मालूम होता है। काबुल से पंजाब तक का प्रदेश
प्राचीन काल में “सप्तसिंघु”--'हप्तहिंदु”--कहलाता था जिस के पश्चिम
मे वाहिकः नाम के जनपद् थे । इस प्रसंग में यद्यपि में ने एलन, फ़्लीट,
स्मिथ आदि विद्वानों की व्याख्या एवं मत का इस पुस्तक में अनुसरण
किया है तथापि मुभे यह सहषं स्वीकृत है कि श्रीयुत जायसवाल जी की
उक्त कल्पना ओर 'अर्थसंगति नितांत मोलिक और उपादेय है। संक्षेप यह
है किं चंद की विजय-प्रशस्ति में जिन बातों का उल्लेख है वे सभी चंद्रगुपत
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