उत्तरदायी कौन | Uttardayi Kaun

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Uttardayi Kaun by युवाचार्य महाप्रज्ञ - Yuvacharya Mahapragya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हम स्वतत्र या परतत्र ? ६ ही वाले है। बेचारे ! वेचारे !, वह देखता रहा | पर दोनो जैसे पहले खड़े थे, वैसे ही निश्चल खडे है। न कोई हलन-चलन है, न कोई विक्षोभ है और न कोई रोप है । कुछ समय बीता । ध्यान सपन्न हुआ । दोनो ने आखे खोली। चरवाहा वृक्ष से नीचे उतरा । उसने कहा-- मुनि महाराज ! एक काला नाग आया था, आपको पता है ? 'नही हम नहीं जानते । आपको उसने तीन वार डक लगाए, क्या दर्दे नही हुआ ? श्म नही जानते, काटा होगा ? 'आप पर जहर का असर नही हुआ ? आप भरे नही ? अरे भाई ! हम यहा थे ही नहीं । किसको काटा हम नही जानते ।' ओह ! मेरे सामने खडे थे, सांप ने आपके शरीर पर डक लगाए। यह सव मैंने अपनी खुली आंखो से देखा है । उस समय मेरा मन कांप रहा था, करुणा आ रही थी और आप कहते है हमें तो पता नही है । आश्चयं ! आश्चयं 1 भाई ! हम शरीर में नही थे । नाग ने शरीर को काटा होगा, हमे ज्ञात नही है ।' जब शरीर की पकड होती है तभी प्रभाव होता है। शरीर की पकड “जितनी मजबूत होगी, प्रभाव भी उतना ही गहरा होगा । शरीर की पकड़ छटेगी, चैतन्य के प्रति जागरूकता बढ़ेगी ती शरीर का भान नही रहेगा। शरीर का ममत्व छोड़ देने पर, शरीर रहेगा, उस पर कुछ भी घटेगा, पर चैतन्य अप्रभाव्ति रहेगा । जब प्राण और चेतना--ढोनो भीतर चले जाते है, उनका समाहार हो जाता है तव शरीर पडा है, उसे साप कटे, कोर भी काटे, कुछ भसर नहीं होगा चेतना पर | यह दूसरा पक्ष है। हमारी चेतना रूपान्त- रित होती है प्रेक्षा के द्वारा । वह परिप्कृत और परिमाजित होती है ज्ञाता- दृष्टा भाव के द्वारा । उस स्थिति में दोनो प्रकार के रसायनों का प्रभाव नहीं होता । यदि होता है तो अत्यल्प मात्रा मे । यह हमारी स्वतंत्रता का पक्ष है । आज रासायनिक और वातावरण की दृष्टि से हमने स्वतवता और परतंत्नता के पहलू पर विचार किया । श्ब एक बहन बा भायाम हमारे सामने है कर्म णी दृष्टि से । कर्म की दृष्टि से हम स्वतंत्र है या परतव-- इस पर एमे चर्चा गरनी है ।




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