जीवन विज्ञान स्वस्थ समाज - रचना का संकल्प | Jeevan Vigyan Svasth Samaj Rachana Ka Sankalp

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jeevan Vigyan Svasth Samaj Rachana Ka Sankalp by युवाचार्य महाप्रज्ञ - Yuvacharya Mahapragya

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about युवाचार्य महाप्रज्ञ - Yuvacharya Mahapragya

Add Infomation AboutYuvacharya Mahapragya

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
व्यक्ति का समाजीकरण १३ होती । किसी ने बुराई की, अपराध किया, गवाह नहीं मिला, तो वह अपराध से छूट जाएगा । कानून वहा पग्मु वन जाता है। बुराई तभी मिट सकती है जब मन का कालापन मिटता है। मन के कालेपत को मिटाता शिक्षा का काम है । भगवान्‌ महावीर ने श्रावक के लिए आचार-सहिता दी । उसका एक ब्रत है--भोगोपभोग ब्रत। इसका अर्थ है, भोग की सीमा करना। संपत्ति कितनी ही हो सकती है, पर वैयक्तिक भोग की सीमा वाछतीय है । विश्व के धनाढ्य व्यक्ति रोकफेलर की वेटी लदन॒गई। वह बाजार में कुछ खरीदना चाहती थी। अनेक फोटोग्राफर साथ मे हो गए। वह एक जूते के दूकान पर गई | चप्पल देखे | उनका मूल्य अधिक था। उसने कहा -- मैं खरीद नही सकती, मूल्य अधिक है । पत्रकार साथ मे था। उसने पूछा-- “आप तो अरबपति की लाडली है, फिर पैसे की वात क्यो करती है ? रोक- फेलर का संस्थान लाखो-करोडों का दान करता है। इस स्थिति मे आपकी बात समझ से नहीं जाती ।” वह बोली--मै एक अरवपति की लडकी हू । व्यापार मे करोड़ो रुपये लग सकते है, पर हमारा व्यक्तिगत बजट बहुत कम है । हम अपने व्यक्तिगत उपभोग के लिए अधिक खर्चे नही कर सकते ।* इस घटना के सदमे में मुझे भगवान्‌ महावीर के द्वारा निर्धारित आ्रावक-सहिता के एक ब्रत की स्मृति होती है। ब्रत है--भोग-उपभोग की सीमा । भगवान्‌ महावीर का अनन्य श्रावक था आनन्द, करोडो-करोडो का स्वामी । अपार सपदा, विस्तृत व्यवसाय, कौटुम्विक--कुटुम्ब का अधिपति । पर उसका व्यक्तिगत जीवन अत्यन्त सीधा और सादगीपूर्ण था । स्वयं के रहन- सहन और खान-पान पर बहुत सीमित व्यय होता था । सपदा के सीमाकरण की चेतना को जगाना शिक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य है। स्वतत्रता की चेतना भी शिक्षा के द्वारा जगाई जाती है। राष्ट्रीय स्वतत्नता का यह अर्थ नही कि उस स्वृतत्रता के आधार पर व्यक्ति जो कुछ चाहे सो कर सके । समाज मे जीने वाला व्यक्ति पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं हो सकता | परतंत्रता भी उसके साथ जुडी रहती है। जहा एक से दो होते है, वहा परतंत्रता आ जाती है । समाज मे सापेक्ष स्वतत्रता हो सकती है। यह परतत्रतायुक्त स्वत्तंत्रता है। मोक्ष ही पूर्ण स्वतत्रता का स्थान है । यहां का जीवन कितने अनुवन्धो और प्रतिवन्धों से जुडा हुआ है ? यहा पूर्ण स्वत्तत्रता की वात प्राप्त नही होती। जो व्यक्ति अहकार के वशीभ्रूत होकर यहा पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ खोजने लग जाता है, वह्‌ कठिनाई पैदा करता है । एक साहित्यकार था। अहकारवश वह अपनी पत्नी से कहने लगा--- देखो, मेरे लेखो के कारण कितनी पत्र-पत्रिकाए विकती है। भेरे साहित्य के




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now