विनय - पत्रिका | Vinay Patrika
श्रेणी : पत्रिका / Magazine, पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13.71 MB
कुल पष्ठ :
467
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श७ विचय-पत्रिका
प्रेम-प्रसंसा-विन य-च्यंगजुन, खुनि विधिकी बर वानी ।
तुछसी मुदित मददेस मनहिं मन; जगत-मातु सुखुकानी ॥ ५ ॥
यावार्थ-( श्रह्माजी छोगोका भाग्य बदलते-बदलते हैरान होकर
'पार्वतीजीके पास जाकर कहने ठगे- ) हे मत्रानी ! आपके नाथ
( दिवजी ) पागल हैं । सदा देते ही रहते हैं । जिन छोगोंने कभी
किसीको दान देकर बदलेमें पानेका कुछ भी अधिकार नहीं प्राप्त
किया; ऐसे लोग्रॉफो भी वे दे डालते हैं, जिससे वेदफी मर्यादा टरटती
है ॥ १ ॥ आप वड़ी सयानी हैं, अपने घरकी भलाई तो देखिये
( यों देते-देते घर खाड़ी होने ठगा है, अनधिकारियोंको ) शिव जीकी
दी हुई अपार सम्पत्ति देख देखकर छदमी और सरखती भी (व्यंगसे)
आपकी बडाई कर रही है ॥ २ ॥ जिन लोगोंके मस्तकपर मैंने
सुखका नामनिश्यान भी नहीं लिखा था; आपके पति शिंवजीके पागछ-
पनके कारण उन करंगार्लोकि छिये खर्ग सजाते सजाते मेरे नाकों दम
आ गया॥ ३ ॥ कहीं भी रहनेको जगह न पाकर दीनता और
दुखियोंकि दुख भी दुखी हो रहे हैं भीर याचकता तो व्याकुछ हो
उठी है ! लोगोंकी भाग्यढिपि बनानेका यह अधिकार कपाकर आप
किसी दूसरेको सौंपिये, मैं तो इस अधिकारकी अपेश्ञा भीख माँगकर
खाना अन्छा समझता हूँ॥ ४ ॥ इस प्रकार न्रझाजी की प्रेम; प्रशंसा;
विनय और व्यंगप्ते भरी हुई छुन्दर वाणी सुनकर महादेवजी मन-ही-
मन मुदित हुए और जगज्ञननी पातंती मुसकराने लगीं ॥ ५ ॥
राग रामकली
[ ६]
जाँचिये गिरिजापति कासी । जाखु भवन अनिमादिक दासी ॥ २ ॥
वि० प० सेन
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