विनय - पत्रिका | Vinay Patrika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श७ विचय-पत्रिका प्रेम-प्रसंसा-विन य-च्यंगजुन, खुनि विधिकी बर वानी । तुछसी मुदित मददेस मनहिं मन; जगत-मातु सुखुकानी ॥ ५ ॥ यावार्थ-( श्रह्माजी छोगोका भाग्य बदलते-बदलते हैरान होकर 'पार्वतीजीके पास जाकर कहने ठगे- ) हे मत्रानी ! आपके नाथ ( दिवजी ) पागल हैं । सदा देते ही रहते हैं । जिन छोगोंने कभी किसीको दान देकर बदलेमें पानेका कुछ भी अधिकार नहीं प्राप्त किया; ऐसे लोग्रॉफो भी वे दे डालते हैं, जिससे वेदफी मर्यादा टरटती है ॥ १ ॥ आप वड़ी सयानी हैं, अपने घरकी भलाई तो देखिये ( यों देते-देते घर खाड़ी होने ठगा है, अनधिकारियोंको ) शिव जीकी दी हुई अपार सम्पत्ति देख देखकर छदमी और सरखती भी (व्यंगसे) आपकी बडाई कर रही है ॥ २ ॥ जिन लोगोंके मस्तकपर मैंने सुखका नामनिश्यान भी नहीं लिखा था; आपके पति शिंवजीके पागछ- पनके कारण उन करंगार्लोकि छिये खर्ग सजाते सजाते मेरे नाकों दम आ गया॥ ३ ॥ कहीं भी रहनेको जगह न पाकर दीनता और दुखियोंकि दुख भी दुखी हो रहे हैं भीर याचकता तो व्याकुछ हो उठी है ! लोगोंकी भाग्यढिपि बनानेका यह अधिकार कपाकर आप किसी दूसरेको सौंपिये, मैं तो इस अधिकारकी अपेश्ञा भीख माँगकर खाना अन्छा समझता हूँ॥ ४ ॥ इस प्रकार न्रझाजी की प्रेम; प्रशंसा; विनय और व्यंगप्ते भरी हुई छुन्दर वाणी सुनकर महादेवजी मन-ही- मन मुदित हुए और जगज्ञननी पातंती मुसकराने लगीं ॥ ५ ॥ राग रामकली [ ६] जाँचिये गिरिजापति कासी । जाखु भवन अनिमादिक दासी ॥ २ ॥ वि० प० सेन




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