सूर - विनय - पत्रिका | Sur Vinay Patrika

Sur Vinay Patrika  by श्री सूरदास जी - Shri Surdas Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सूर-वितय-पत्रिका शु भ्रूण कौ चरन राखि उर ऊपर बोले... बचन ... सकल-सुखदाई । सिव-बिरंधि. मारन की. धाए यह गति काह् देव न पाई ॥ बिन्न॒॒ बदल. उपकार करत हैं स्वारथ बिना. करत मित्राई। रावन अरि कौ अनुज -बिभीषन ता को मिले भरत की नाई ॥ बकी कट करि. मारन आई ख्रों .हरि. जू. .बेकुंठ॒ प्ठाई। दोन्दें. ही. देत -सूर्रभु ऐसे. हैं... जदुनाथ. -गुसाई ॥ _ भगवान्‌ वासुदेव -श्रीक्ृष्णचर्द्र का यही. तो सदन बड़प्पन हैं कि- वे जगातके पिता जिशुववके स्वामी एवं लिव्योकीके परमणुरू होनेपर भी अपने मक्तोंकी घृष्ताको. सूद्द. लेते हैं । -फ़ादन्प्रदार ..क्ररनेपर सी महर्षि भमुके श्वरणोंका विन ग्र्ुने. अपने हुदयप्रर -घास्ण किया.जौर उनसे .सबकों सुख. देनेवाले लिनय्र वच्चन ही-क्रदे । भगवान दंकर सर अह्माजी तो सददर्षि शयुको . मारने ही दोड़े थे.। यह दयासय कमाणील्ताकी गति किसी देवताने नहीं पायी हैं । दयासय इयामसुन्दर बिना बदला चाहे ही उपकार करते हैं बिना स्वार्थकी .मित्रतता करते हैं । रावण शत्रु था किंठु उस दातुके भाई विभीषणसे अपने सगे भाई मरतके समान सिले । बकी पूतना राश्षसी कपट करके सुन्दर नारी-रूप बनाकर दूध पिछानेके बहाने मारने आयी थी किंतु उसे इयामसुन्दरने वेकुण्ठ भेजा | सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी शीयदुकुलनाथ ऐसे -दयाघाम हैं कि. दिना कुछ दिये ही सबको सब कुछ देते रहते हैं ।




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