मंत्र योग संहिता | Mantra Yog Sanhita

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Mantra Yog Sanhita by विवेकानन्द - Vivekanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्‌ मन्त्रयोग-संदिता । नस उसी नामरूप के अवलम्बन से ही सुकौशल पूर्ण क्रियाओं के द्वारा साधक चित्तवृत्तियों का निरोध करके वन्धन से सुक्त हो सक्ता है। 6 । जहां कोई कार्य्य होगा वहां कस्पन झवरय होगा | झौर जहां कम्पन होगा वहां शब्दका भी होना स्थिर निश्चय है, यह वात स्वतःसिच् और विज्ञानाचुमोदित है । सष्टि के श्रारम्भमें जब साम्यावस्था की प्रकृति से प्रथम सष्टिकास्य श्वारम्भ हुआ तब उसी साम्यावस्था से जो प्रथम हिल्लोल की ध्वनि हुई वही प्रणव है । + । यह केवल विज्ञानवेत्ताओं का श्रनुमान सिर विपय नहीं है; श्रत्युत योगीलोग इसको प्रत्यक्ष करते हैं । योग़ साधन के दारा चित्तबत्तियों का निरोध करके साधक जब साम्यावस्था प्रकृति के निकटस्थ हो जाता है,' तब उस साधक को सदा सबदा वहू प्रणव ध्वनि सुनाई देती है। . साम्यावस्था की प्रकृति के साथ जैसा प्रणव का सम्बन्ध है वैपम्यावस्था की प्रकृति के साथ ऐसा ही बहुत से बीज मन्त्रों का सम्वन्ध है । साम्यावस्था की प्रकृति में सत्त्व, रज़ श्ौर तम इन तीन युखों की समता रहती है । जैसे. किसी थाली में जल रखकर उस थाली को हिलायां जाय ' तो सब से प्रथम उस थाली का सब जल एकबार एकदम हिल जायगा और पीछे उसीसे नाना तरडू उत्पन्न होकर & इस अन्य के 'पन्ययोग-लक्षण” नामक प्रकरण में द्टव्य है । 1 इस प्रत्य के सल्नयोग:विश्ञान” नामक प्रकरण में है।




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