विज्ञान | Vigyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
77.85 MB
कुल पष्ठ :
272
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)श्७ चिशञान भरना नी दी भी दम कि एक पिच भी दर भा पथ री पा पी भी भाभी पलटी ५ अर दि चिप वि यह नि सिद्धि ि है। छेकिन भारतीय बेकॉकी जाँच कमेटीकी रिपोरटके मामलॉपर भी ध्यान देती है लेकिन जहाँ तक हम देखते हैं तीसरे दरजेके यात्रियोंके साथ तो भव भी सेड्-बकरियों- की भांति ही व्यवहार होता है । इस देशमें युरोपियनोंसे भारतीय उद्योग घंघोकी उन्नतिके विषयमें जब बातचीत होती हैं तब ये कहा करते हैं कि एक तो भारतवासियोंका बहुत सादा रहन-सदन होनेके कारण उनकी भावधयकताएँ कम हैं और दूसरे भारतकी बढ़ती हुईं आाबादो भारतीय भाधिक उन्नतिमें यह दो सुख्य रुकावट हैं । लेकिन इन दुलीलॉका उत्तर तो विछकु साफ है । वह यद्द कि यदि भारतमें उत्पादन काय॑ भधिक हो जिसका होना भारतके प्राकृतिक अक्षय कोषके कारण सम्भव है तो इतनी अधिक बढ़ती हुई ज़नताका निवांड होना मामूली सी बात है । अब रही भारतवासियोंके रहनसहनकी सादगी सो यह तो उनकी गरीबीका फल है न कि कारण । यह एक सामूली सी सोचनेकी बात है कि कोई व्यक्ति जपनी आवश्यकताएं किस प्रकारसे बढ़ा सकता है जब तक कि उसझी आमदनी न बढ़ जाय । इच्छा तो सब ही की द्ोती दै कि हम खूब पन्ना आरामसे रहें लेकिन ऐश आारामके झूठे स्वप्न देखना कहाँकी बुद्धिमानी है जबतक कि हम बेड्योंसे कसे हुए हैं । भौर तो क्या किसानोंकी दी भोर देखिते इन्हें वर्षभरसें कुछ मिलाकर कमसे कम 9 अरब ४० करोड़ रुपया. भपने कज़के च्याजमें चुकाना पड़ता है । भौर महाजन छोग उनसे २.९८ के लगभग अपने घनपर घ्याज छेसे हैं । १० सहकार समितियों कुछ नहीं कर सकतीं इमारे इस कथनके उत्तरमें सद्दकारी संस्थाओं को आपरे- रिव क्रेडिट सोसाइटियोंकी तरफ इद्यारा किया जाता है केकिन १९३० भर १९३१के भंकोंको देखनेसे पता रगता दै कि ब्रिटिदया भारतमें कुछ ९४ ५०० सदकारो संस्थायें हैं जिनमेंसे कवच ७४ ५०० किसानोंके लिये हैं । मारतकी सब सहकारी संस्थामोकी पूँजी मिलाकर लगभग ७५ करोड़ है और फकिसानोंकी सहकारी संस्थाओंकी पूँजी सब मिलाकर केवल हे० करोड़ ५० लाख़के कगभग साग धर अनुसार किसानोकी & अरबके उगभगकी क्ज- दारीके सामने यह पूँजी कुछ भी नहीं है । इन हालतोंको देखते हुए भारतीय सरकार भौर विश्चविद्यालर्योका छाखों रुपये खचे करके खेतोंके लिये कृषपि-सम्बन्धी संस्थायें स्थापित करना बिलकुल बेकार है जबतक कि भारतीय किसानोंके पास उन उन्नत तरीकोंके अनुसार काम करनेके लिये काफी रुपया न हो । सहकारी संस्था्भोकी आर्थिक कमजोरीके आक्षे पके उत्तरमें कहा जाता है कि इस ओर अधिक उच्चति नहीं हो सकती जबतक कि गाँवोंके किसान सहकारिता सिद्धान्तोंसे पूर्णतया परिचित और शिक्षित न हों। छेकिन विचार करनेसे मालूम होता है कि कज छेनेवालेके पास किसी ग्रकारकी जायदार्दका होना आवश्यक है न कि शिक्षा और व्यापारिक योग्यताझा । शिक्षा और व्यापारिक योग्यता तो कज़े देनेवाछेमें होनी चाहिये । प्रत्येक गाँवमें संस्थाका प्रबन्ध करनेके लिये दस-बीस समझदार पढ़े लिखे और व्यापारिक योस्यतावाले पुरुपाका को हे कठिन बात नहीं है और कज़े छेनेवाछे किसानोंके पास तो खेती भौर खेतकी जमानत होना ही काफी है। वास्तवर्में कमजोरी तो सहकारी संस्था ओके केन्द्रोंकी है क्योंकि वे अपनी शाखाओंकों काफी रुपया भधषिक लस्बे समयके लिये नहीं दे सकते । और चास्तवरमें देखा जाय तो. जआवइ्यकता इस बातकी दै कि कृषि भौर छोटे उद्योगोंके लिये लम्बे समयके छिये कर्ज दिया जाय क्योंकि उनके चलानेवाले साघन सम्पन्न नहीं होते भौर उनकी आमदनी थोड़ी होती है भोर धीरे-धीरे होती है । केवल दूकानदारी आदि व्यापार ही कुछ ऐसे हैं जो छाभप्रद हो जाते हैं इसलिये वे थोड़े ही समयमें अपना करो चुका सकते हैं । केन्द्रीय सहकारी संस्थाएं अकसर प्रान्तीय बेंकोंसे रुपया उधार छिया करती हैं यदि प्रान्तीय बेंकॉंसे रुपया मिलनेमें किसी श्रकारकी कठिनाई पड़ती है तो जनवाके स्थानीय बेंकोंसे रुपया के लिया करती हैं। लेकिन यह रुपया भी उन्हें थोड़े समयके लिये ही मिंछता है और उसपर भी किसानोंके उपयोगके लिये रुपया देनेमें तो प्रान्तीय बेँक भी बहुत हिचकिचाते हैं । अतः सरकारका यहाँ कत्तंव्य होता
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