संत कबीर | Sant Kabir

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्द् संत कबीर श्रड़चन पड़ जाती है । इष्ठों के बजाय परों पर दो संख्यः लिखी जाती दे । श्वतः एक पत्र की संख्या मिट जासे पर श्रपते सदर्म की सूचना नहीं दे सकता जब तक कि उसमें कोई टूटा दुध्ा शब्द या चरण ने दो। इस कठिनाई से वह पत्र पथ में कहाँ जोड़ा जाय यद्द एक अश्न दो जाता दै । यदि दो-तीन पत्रों के संबंध में ऐसी कठिनाई दो गई ती सारा दस्तलिखित अंथ ही क्रम-विद्दीन हो जाता है। उदादरण के लिए, नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित कबीर प्रंथावली में 'गोक्ल माइक बीढला मेरो मन लागी तोदि रे” (पद प्र) के वाद “श्रय मैं पाइवी रे ब्रह्म गियान (पद ६) है फितु जोधपुर-राज्य पुस्तकालय की “ख्रथ कबीर जी के पद” में ४, के बाद 'मन रे मन ही उलटि समाना' पद है जो ववीर प्रंथावली में घ्वाँ पद हे। श्रनुमान दोता है फि जिठ मूल प्रति से जोधपुर-राज्य पुस्तकालय की प्रतिलिपि बनाई गई दोगी उसका एक पम खो गया दोगा | ७. कबीर के काव्य की प्रतियाँ स्वयं कवि द्वारा श्रथवा किसी संस्था द्वारा न लिखी जाकर मिन्न-मिन्न स्थानों में तथा भिन्न-भिन्न युगों में की गई हैं । छपाई के भाव मे प्रामाणिक प्रतियों की प्रतिलिपियों में भी श्रनेक श्रशुद्धियाँ श्रा जाती हैं । कसी प्रति की जितनी दी श्रधिक प्रतिलिपियाँ होंगी उसमें श्रशुद्धियों का अनुपात उतना दो श्रधिक्र बढ़ता जावेगा । फिर बड़ी रचना होने के कारण एक ही प्रति की प्रतिलिपियों में श्रनेक व्यक्तियों का. दाथ दो सकता है । चदाँ भूलें श्रौर भी झधिक दो सकती हैं | समानता का श्रभाव तो दो ही जायगा | फिर यदि लिपिकार श्रददभाव से युक्त होगा तो वह पाठ को अपनी श्ौर से शुद्ध भी कर लेगा | प्र. भाषा-विज्ञान के श्रनुसार झ्नेक पीढ़ियों में उच्चारण-मेद हो जाना स्वाभाविक है | श्रतः जब तक मूल प्रति या उससे की गई प्रामाणिक प्रति न मिले तब तक पाठ के सबंध में पूर्ण शाशवत्त दोना




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