इन्कलाब | Inklab

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बेठ सकता । श्ौर बहरहाल मैं तो भ्रपने कारोबार के सिलसिले में जा रहा हूं। ' मैं वहां कोई सियासी तहरीक 'वलाने तो जा नहीं रहा हु, फिर मु कुछ क्यो होने लगा ?”” क “फिर भी भाई साहब,” रामेदवरदयाल ने हिम्मत करके कहा--रामेदवर- दयाल यों तो उम्र में श्रकबरझ्ली के बराबर ही थे पर वे हमेशा उन्हें भ्रपना बडा भाई मानकर “भाई साइब' कहते थे--“'श्रगर जरा भी खतरा है तो मैं तो यही कहूगा कि श्राप वहा न जाए ।”' “रामेदवर, नादानी की बातें न करो । जब तक मैं झमृतसर जाकर मिलो के साथ माल का बदोबस्त नहीं करू गा तब तक हम श्रपना यह ठेका पुरा नहीं कर सकते । मैं कल सुबह ही चला जाऊगा ।। अ्रमवर को श्रब्बा का इस तरह दो ट्रक पक्का इरादा जाहिर कर देना बहुत पसद था । वे किसी बात से घबराने या डरनेवाले नह्दी थे । अगर कोई काम करना होता था तो वे उसे पूरा करके ही छोड़ते थे, चाहे कुछ भी हो जाए । अझनवर का हृदय एक बार फिर गर्व से भर उठा । श्ौर फ़िर उसका गर्व से भरा हुआ हृदय जोर से धडका, उसके कानों मे घटिया-सी बजने लगी, प्रौर खुशी के मारे उसके सारे दारीर में हलकी-सी कपकपी दौड़ गई । अनवर !” उसके श्रब्बा ने उसकी तरफ देखकर पुकारकर कहा । “जी झब्बा “मेरे साथ श्रमृतसर चलोगे ?” और यह कहकर वे सुस्करा दिए । यह सवाल इस तरह झचानक उसपर टूट पड़ा कि श्रनवर हकका-बवका रह गया; उससे कोई जवाब देते न बन पडा । वह यह सुनने के लिए भी वहा न रुका कि अभी अपने दोस्तो को यह समभा रहे थे कि वे झ्रपने झाठ बरस के बेटे को झ्रपने साथ इसलिए ले जा रहे थे कि वे चाहते थे कि उसे दुनिया की खबर हो, यात्राएं करके उसका दृष्टिकोण व्यापक हो और वह साहसी श्रौर निडर बने । अनपर भागकर जनानखाने में पहुंच चुका था श्र अपनी बहिन के गले से लिपटकर बेहद खुश होकर कह रहा था, “बाजी श्रजुम, मैं श्रमृतसर जा रहा हूं ।”




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